ईश्वर का मार्ग है वीरों का
नहीं कायर का कोई काम
पहले-पहल मस्तक देकर
लेना उनका नाम
किनारे खड़े होकर तमाशा देखे
उसके हाथ कुछ न आए
महापद पाये वह जाँबाज
छोड़ा जिसने मन का मैल
१२ मार्च १९३० को प्रातःकाल ०६ बजकर २० मिनट पर
अपनी प्रार्थना समाप्त कर ६१ वर्ष के युवा ‘महात्मा गाँधी जी’ ने इन पंक्तियों को
सुनकर सिर्फ ७८ सत्याग्रहियों के साथ अपने साबरमती आश्रम से दुनिया के दस बड़े
आंदोलनों में से एक ‘दांडी मार्च’ का आगाज़ किया जिसको आपर जनसमूह का समर्थन मिला
और इसने आज़ादी की लड़ाई में बेहद महत्वपूर्ण बोले तो निर्णायक भूमिका अदा की
क्योंकि, इसके एक दिन पूर्व ११ मार्च को ही ‘गांधीजी’ ने इस अभियान को प्रारंभ
करने से पूर्व ये प्रतिज्ञा ली थी कि, “मेरा जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का नाश करने
के लिए ही हुआ है मैं कौवे की मौत मरुँ या कुत्ते की मौत, पर
स्वराज्य लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूँगा” तो फिर भला ये पुनीत यज्ञ सफल किस
तरह से नहीं होता २४० मील की इस पदयात्रा में अनगिनत लोगों ने अपनी-अपनी तरह से
आहुति दी जिस-जिस स्थान से ये यात्रा निकली वहां-वहां इसको लोगों का सकारात्मक
समर्थन मिला जिसने ब्रिटिश हुकूमत को ये संकेत दे दिये कि अब भारत को लंबे समय तक
गुलाम बनाये रखना संभव नहीं हैं ।
इस तरह से मार्च महीने में होने वाले इस मार्च
ने स्वतंत्रता संग्राम में जिस नमक की कमी थी उसकी पूर्ति की और लोगों में अपार
जोश व हौंसला भर दिया था इसलिये इसके बाद जिस तरह से इतिहास में बड़े-बड़े बदलाव आये
और वो सारा परिदृश्य बेहद रोमांचक था बोले तो ये एक तरह से भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम का क्लाइमेक्स था जिसने समूचे घटनाक्रम को अप्रत्याशित रूप से बदल दिया था
क्योंकि, इसके एक साल बाद इस महीने में २३ मार्च को शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राजगुरु
और सुखदेव के बलिदान ने मानो फिरंगी सरकार के तख्ते को पलटने का पूरा इंतजाम कर दिया
।
इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी वापसी की तैयारियां शुरू कर दी क्योंकि, वे समझ गये थे
कि जितना हम भारतीयों का दोहन कर सकते थे उतना कर चुके अब यदि ‘आज़ादी’ का बिगुल
बजाने में उनकी मदद नहीं की तो युवा क्रांतिकारी जो ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ जैसे
हथियारों की जगह अपनी ताकत के बल पर लड़ते हैं वो उनको आसानी से लौटने भी न देंगे
तो जाते-जाते भी जितना नुकसान कर सकते थे वो करने के लिये हमेशा की तरह ‘फूट डालो,
राज्य करो’ पर अमल करते हुये विभाजन का दंश देकर जीवन भर रोने को छोड़ गये और
बलिदानियों के अखंड भारत के स्वप्न को भी तोड़ गये ।
जब-जब भी ऐसा कोई ऐतिहासिक दिवस आता तो उन सभी
वीर-बहादुरों की कुर्बानियां याद आती... जो हमें सोचने पर मजबूर करती कि इतनी विपरीत
परिस्थितियों व अभावों में रहकर भी कभी हमारे क्रांतिकारी हारे नहीं और देश को
स्वतंत्र कराने के लिये अपनी जान की बाजी लगाकर भी लड़ते रहे और हम सब सुविधाओं में
रहकर भी उसी देश की तरक्की के लिये कुछ कर गुजरने की जगह आरोप-प्रत्यारोप में समय
गंवा रहे... सलाम उन सभी देशवासियों को जिन्होंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस
जंग में अपना योगदान दिया... ☺ ☺ ☺ !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१२ मार्च २०१८
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