उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए
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‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से १९५९ में प्रकाशित ‘तीसरा
सप्तक’ के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में ‘कवि केदारनाथ सिंह’ का उदय और काव्य
भूमि पर एक नये कवि का जन्म हुआ जिसने अपनी कविताओं के द्वारा कविता प्रेमियों के
दिल पर दस्तक दी तो पाठक भी उसके दीवाने हो गये जो हमेशा ही नवीन बिंबों और विषय
की तलाश में रहते और जिनकी कविता की प्यास कभी बुझती नहीं इसलिये जब भी कभी कोई
कलमकार उसकी उस तृष्णा को पूरा करता तो वो उसे भूल नहीं पाता उसके अधरों पर जब-तब
उसके अल्फाज़ आकर उसकी याद दिला ही देते फिर ‘केदारनाथ’ तो थे ही अलबेले और अनूठे
जिन्होंने खुद ही स्वीकार किया कि उनकी देह उनके रक्त में खिला हुआ कमल हैं...
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मेरी हड्डियाँ
मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल
क्या आप विश्वास करेंगे
यह एक दिन अचानक
मुझे पता चला
जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था
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कितनी गहन अनुभूति से भरा हुआ लेखन हैं जिसका
अहसास भी उतना ही दिव्य जो ‘तुलसीदास’ की कलम से निकले शब्दों से उनकी आत्मा में
जगा तो फिर उसे कलम के जरिये सफों पर उकेर दिया जिसका असर भी उतना ही जोरदार होना
ही था तो हुआ और लोगों ने इस देह रूपी कमल को हाथों-हाथ लिया जिसकी लेखनी उनके मन के
भावों को भी उतनी ही शिद्दत से प्रकट करती थी क्योंकि, काव्य रचनाकर्म में रत
कलमकार अहसासों के स्तर पर लगभग एक समान ही होते केवल अभिव्यक्ति का अंदाज़ अलहदा
होता तो कुछ यूँ उन्होंने अपने हमजात को संबोधित किया...
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कवि जी सुनो
इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े
और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्मांड को
एक छोटी-सी साँस की
डिबिया में भर लो
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कलम को अपना आजीविका मानने वालों का पथ कंटक भरा
माना जाता क्योंकि, लेखन आत्मा को तो सुख देता लेकिन, देह की भूख को शांत करने के
लिये शब्दों की नहीं अनाज की आवश्कयता होती जिसे पाने की शक्ति सबकी कलम में नहीं
होती मगर, जिसको ये वरदान हासिल होता वो जीते-जी भी और मृत्यु उपरांत भी अपनों के
लिये इतनी व्यवस्था कर जाता कि उन्हें भूखा न रहना पड़े और लिखना तो लेखक की साँस
की तरह होता जिसके बिना उनका जीना लगभग असंभव होता तभी वे उस भाव को यूँ व्यक्त कर
पाये...
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मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
.....
मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'
.....
'आदमी' 'आदमी' – मैं
लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
.....
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ
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लिखना जिनका जीवन वो इस सच्चाई से वाकिफ़ होने पर
कि, लिखने से कुछ नहीं होगा लिखना चाहते हैं ऐसी ही जिद उनकी भी थी कि भले उनके
लिखने से कोई परिवर्तन न आये या भले ही उनके शब्द किसी का हृदय परिवर्तन न कर सके
वो अपना कर्म करना नहीं छोड़ेंगे तो आजीवन वही किया कलम को आवाज़ बनाकर अपनी बात
कहते रहे और दुनिया को बताया कि दुःख हूँ मैं एक नये कवि का...
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दुख हूँ मैं एक नये हिन्दी कवि का
बाँधो
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय, किस छन्द में?
.....
ये छोटे छोटे घर
ये बौने दरवाजे
ताले ये इतने पुराने
और साँकल इतनी जर्जर
आसमान इतना जरा सा
और हवा इतनी कम कम
नफरतयह इतनी गुमसुम सी
और प्यार यह इतना अकेला
और गोल -मोल
बाँधो
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय , किस छन्द में?
.....
क्या जीवन इसी तरह बीतेगा
शब्दों से शब्दों तक
जीने
और जीने और जीने और जीने के
लगातार द्वन्द में?
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जीवन के प्रति उनकी ये सोच और उनका ये विचार
जितना गंभीर हैं उतना ही विचारणीय कि, क्या जीवन इसी तरह बीतेगा शब्दों से शब्दों
तक जीने और जीने और जीने और जीने के लगातार द्वन्द में?
वाकई, हर लेखक की यही पीड़ा जिसे उन्होंने इतनी आसानी से कह दिया कि एक कवि शब्दों
को ही जीता और शब्दों के साथ ही मरता हैं और यही शब्द उसके बाद उसकी पहचान बन जाते
हैं जिनको दोहराकर उनके चाहनेवाले उनको पुनः अपने करीब महसूस करते हैं अपने अनुभव
से ही उन्होंने उस रहस्य को भी पा लिया जिसके लिये ऋषि-मुनि बरसों साधना-तपस्या
करते और तब भी नहीं जान पाते लेकिन, अक्सर लेखक अपनी गहन चिंताओं और समाज के बीच
ऐसे ज्ञान सहज ही पा लेता जो उन्होंने यूँ लिखा...
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सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुँचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूँजी है
मेरी चलती हुई साँस
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी
जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा
खर्च कर देता हूँ
.....
क्यों न ऐसा हो
कि एक दिन उठूँ
और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है-
इस शहर के आखिरी छोर पर-
वहाँ जमा कर आऊँ
.....
सोचता हूँ
वहाँ से जो मिलेगा ब्याज
उस पर जी लूँगा ठाट से
कई-कई जीवन
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कवि मन बेहद संवेदनशील होता जो समाज और व्यक्ति
ही नहीं प्रकृति से भी बहुत कुछ ग्रहण करता और जब भी उसे कोई अनोखा दृश्य या कोई
भी अनोखा बिंब दिखाई देता उसे झट से कविताबद्ध कर देता जिससे कि वो हमेशा के लिये
उसी तरह से सदैव जीवंत बना रहे और उसे लेखन की प्रेरणा देते रहे ऐसा ही कुछ उनकी
इन पंक्तियों में भी दृष्टिगोचर होता हैं जो शायद, उन्होंने कभी अचानक पक्षियों को
उड़ते देखकर लिखी होगी...
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पृथ्वी के ललाट पर
एक मुकुट की तरह
उड़े जा रहे थे पक्षी
.....
मैंने दूर से देखा
और मैं वहीं से चिल्लाया
बधाई हो
पृथ्वी, बधाई हो!
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अपनी कविताओं से साहित्य की दुनिया में सूरज की
मानिंद रोशन ‘केदारनाथ सिंह’ का आज के दिन यूँ एकाएक हम सबको छोड़कर जाना बेहद दुखद
हैं क्योंकि, उनके शब्दों में ‘जाना’ हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया हैं... और आज जब
हम उन्हें जाते हुये देख रहे तो अपने अंतर में उस पीड़ा को महसूस कर रहे जो उनके
जाने से हमारे भीतर उपज रही...
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मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है
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निश्चित ही ‘केदारनाथ सिंह’ का अवसान हिंदी
साहित्य जगत की एक अपूरणीय क्षति हैं जिसकी पूर्ति संभव नहीं और उनके जाने से जो
खाली स्थान पैदा हुआ हैं वो भी सदा उनकी याद दिलाता रहेगा कि कवि तो बहुत आ
जायेंगे लेकिन, कोई दूसरा केदारनाथ न आयेगा इस दुनिया में कभी कोई किसी की जगह
नहीं ले सकता हर कोई किसी से कम या ज्यादा हो सकता लेकिन, हूबहू दूसरे जैसा होना
मुमकिन नहीं और यही सत्य हैं कि, अब केदारनाथ सिंह नहीं आयेंगे... ईश्वर उनकी
आत्मा को शांति दे और साहित्य जगत को भी ये असहनीय दर्द सहने करने की शक्ति दे
जिससे फ़िलहाल सभी गुजर रहे... ॐ शांति ॐ !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१९ मार्च २०१८
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