मंगलवार, 6 मार्च 2018

सुर-२०१८-६५ : #फेक_फेमिनिज़्म_०२ #सिगरेट_शराब_में_बराबरी_ढूंढती_स्त्री



‘फेमिनिज्म’ को स्त्रियों ने पुरुषों की बराबरी से जोड़कर उसके मायने उससे प्रतिस्पर्धा समझ लिया इसलिये ज्यादातर ‘फेमिनाओं’ के स्टेट्स में यही बात मुख्य रूप से सामने आती कि जब पुरुष खुलकर सिगरेट या शराब पीता तो किसी को उसमें कुछ गलत नहीं लगता बल्कि, उसे सहज स्वीकार कर लेता तो स्त्रियों के संदर्भ में ऐसा क्यों नहीं होता जबकि, ‘स्त्रीवाद’ का ये उद्देश्य हैं ही नहीं कि ‘औरत’ अपनी पहचान खोकर पुरुष की प्रतिकृति बन जाये बल्कि, वो अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करे सबसे बड़ी बात कि ऐसा करने के लिये उसे मर्दों को किसी भी मामले में नीचा दिखाने या किसी भी क्षेत्र में उसकी नकल करने की कतई आवश्यता नहीं क्योंकि, उसके अपने हूनर व काबिलियत ही नहीं क्षमतायें भी उनसे अलग हैं तब वो क्यों हर मामले में पुरुष का ही जिक्र करती और एक तरह से देखे तो वो अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति हेतु उसकी बुरी प्रवृतियों की आड़ लेकर उससे मुकाबला करती हुई नजर आती मानो नशा करने या गलत आदतों की वजह से ही पुरुष श्रेष्ठ समझा जाता हैं

दरअसल औरतों को लंबे समय तक इतना दबाया व कुचला गया और सिर्फ एक देह समझा गया कि वो भी काफी हद तक खुद को उस मानसिकता से मुक्त नहीं कर पाई हैं अब तक इसलिये उसकी लड़ाई भी इसके इर्द-गिर्द ही उलझी हुई और उसने हमेशा से मर्दों को अपने आर्थिक सामर्थ्य के दम पर खुद के व्यसनों को सही साबित करते देखा तो जब उसे अपनी शिक्षा या नौकरी से वही स्थिति प्राप्त हुई तो वो भी उसी का अनुकरण करने लगी ये भूलकर कि मजबूरी से उसे ये सब सहन करना पड़ा था अब जब वो खुद सामर्थ्यवान और अपने पैरों पर खड़ी हैं तो क्यों उसकी गलतियों को दोहराना चाहती जबकि वो स्वयं ही उसकी इन आदतों से परेशान रहती आई और उसे नापसंद करती हैं मगर, जैसा कि होता हैं अक्सर कि धन और आत्मनिर्भरता मतिभ्रम पैदा कर देती तो कुछ वैसा ही उन औरतों के साथ हो रहा जिसके कारण वो सत्य को न तो समझ और न ही देख पा रही है और उनका रुतबा ऐसा कि जो उनका अनुशरण करती वे उसे ही सच मान उनकी हाँ में हाँ मिला रही
          
‘फेमिनिज्म’ का एक सबसे दुखद पहलू ये भी हैं जिसने उसे ‘फेक’ साबित कर दिया हैं क्योंकि, कोई भी अपना पृथक अस्तित्व बनाने की बात नहीं करता सब की सब यही दोहराती नजर आती कि हमें मर्दों के बराबर अधिकार चाहिये या हम भी पुरुषों की तरह ही उन्मुक्त सब कुछ करना चाहती जिसने उनके मूल उद्देश्य को भ्रमित कर दिया कि कहां तो वे अपनी अपने स्त्रीत्व के साथ ‘सेकंड पोजीशन’ को उसके सामानांतर लाना चाहती थी और कहाँ वो उस नारीत्व को ही ताक़ में रखकर पुरुष बन जाने को आतुर नजर आती हैं इन सबका नतीजा ये हो रहा कि पहले जहाँ चाकू खरबूजे को काटता था अब खरबूजा खुद जाकर चाकू पर गिर रहा और ये सोच रहा कि भले ही कट रहा लेकिन, कम से कम इसमें उसकी सहमति तो शामिल हैं याने कि पहले भी पुरुष मजे में थे अब भी हैं और इस ‘फेक फेमिनिज्म’ के कारण तो अधिक क्योंकि, उन्हें केवल तुष्टिकरण करना होता याने कि पहले जो काम बल से कर रहा था अब वही छल से कर रहा इसलिये ऐसी महिलाओं की पोस्ट पर पुरुष हमेशा समर्थन करते नजर आते जिसे अपनी जीत समझ वो इतराती रहती


इस दूसरी कड़ी में यही समझाने का प्रयास किया गया हैं कि औरतें समझे कि ‘फेमिनिज्म’ का मतलब पुरुषों को नीचा दिखाना या उनसे टक्कर लेना नहीं हैं बल्कि, अपनी अलग लकीर और अपना अलग पथ बनाना हैं यदि वे उसी राह पर चली तो वहीँ पहुंचेगी जहाँ पुरुष पहुंचा लेकिन, यदि अपनी अलग राह बनाई तो अपना अलग मुकाम भी बनायेंगी तब वे अलग नजर भी आयेंगी जैसा कि चंद स्त्रियाँ कर भी रही बोले तो अपने कर्मों से ‘फेमिनिज्म’ को सार्थक बना रही जबकि, बाकी केवल बोल-बोलकर या लिख-लिखकर ही उसे किसी प्रमेय की भांति सिद्ध करने में लगी हुई तो इस ‘महिला दिवस’ वो इसके वास्तविक मायने खोजने की कोशिश करें यही कामना हैं

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०६ मार्च २०१८

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