जो हुई
फ़ाग की आमद
खिल गये टेसू
बिखर गये रंग चहुँ और
निखर गयी कुदरत
कर श्रृंगार रंग-बिरंगे फूलों से
भँवरे भी पास आकर
कानों में कलियों के कुछ कहने लगे
सुन-सुन उनकी बातें
खिल-खिलाने लगी सारी बगिया
देख प्रकृति का रूप सलोना
रंग-बिरंगे रंगों से सजी कुदरत अलबेली
वश में न रहा किसी का भी मन
रंगने खुद को उसके रंग में
पलाश के रंगों से खेली प्राकृतिक होली
ऐसे मनाई फाल्गुन पूर्णिमा
कृत्रिम रंगों से अब जो बन गई...
‘रासायनिक होली’ ।।
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०१ मार्च २०१८
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