13 मार्च
1940
मतलब आज से ठीक ७८ साल पहले की वो शाम जब ‘लंदन’ के कैक्सटन हॉल ‘ईस्ट इंडिया
एसोसिएशन’ और ‘रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी’ की एक बैठक का आयोजन एक बड़े समारोह के
रूप में किया जा रहा था और पूरा हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था । इन्हीं अनगिनत लोगों के बीच में एक भारतीय
नवजवान भी बैठा था जो उपरी तौर पर तो एकदम सामान्य नजर आ रहा था परंतु, उसके अंदर
२१ साल से बदले का लावा खौल रहा था ।
जिसकी तपिश ने उसके अंदर के लहू में ऐसा उबाल ला दिया था कि अपने मिशन को अंजाम
देने के लिये उसने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील
और अमेरिका की अनेक यात्राएं की । अंततः सन् 1934 में वो अपने गंतव्य स्थल पहुँचकर
9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शल रोड पर रहने लगा और अपने लक्ष्य को अंजाम तक पहुँचाने के
लिये उसने छह गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी खरीद ली फिर उसे हासिल करने के लिये सही
समय का इंतजार करने लगा ।
आखिरकार, उसकी तपस्या सफ़ल हुई और आज के दिन 1940
में वो मौका मिल ही गया जिसके लिये उसने इतने कष्ट उठाये क्योंकि, 13 मार्च 1940
को हो रही बैठक में ‘माइकल ओ डायर’ भी वक्ता के रूप में आमंत्रित था । ऐसे में वह
नवजवान किसी तरह उस जगह पहुंच गया उस वक़्त उसने अपने ओवरकोट में एक मोटी किताब के
भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर छिपाकर रख लिया था जिसका
इस्तेमाल अगले कुछ पलों में होने वाला था ।
जैसे ही बैठक समाप्त हुई उस नवजवान ने दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ‘डायर’
पर दनादन गोलियां चला दीं जिसमें से दो गोलियां डायर को लगी और उसकी तुरंत मौत हो
गई। इसके बाद उस बहादुर नवजवान ने वहां से भागने की कोशिश न कर स्वयं को कानून के
हवाले कर गिरफ्तार करा दिया ।
उस पर मुकदमा चला और
जब अदालत में उससे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु
उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया’ तो उसने बड़ी विन्रमता से जवाब दिया कि, वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप
है। इसके साथ ही उसने कहा, “मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक था मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की
दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं मुझे मरने का डर
नहीं है क्योंकि, देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए”। इस मुकदमे के फैसले
अनुसार 26 दिसंबर 1899 को पंजाब प्रांत के सुनाम गाँव में जन्में ‘उधम सिंह’ को ४०
साल की उम्र में 31 जुलाई, 1940 को 'पेंटनविले
जेल' में फांसी दे दी गई ।
ऐसे नवजवान अब सिर्फ
इतिहास में ही मिलते तो जब उनसे जुड़ा कोई भी दिवस आता उनके जीवन के बारे में सोचकर
मन द्रवित हो जाता कि चाहते तो वे भी जीवन को चुन सकते थे लेकिन, उन्होंने मौत
चुनी क्यों ? इसका जवाब वही समझ सकते जिन्हें अपने देश और देशवासियों से प्यार हैं...
वो नहीं जो अपने देश, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं और अपनी भारतमाता को गालियाँ
देते... शहीद उधम सिंह के इस जज्बे और वीरता भरी शहादत को मन से नमन... ☺ ☺ ☺ !!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१३ मार्च २०१८
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