सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

सुर-४१० : "इंद्रधनुषी प्रेमोत्सव का अंतिम रंग : वैलेंटाइन डे...!!!"


दोस्तों...

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हर दिली अहसास को
बाँट अलग-अलग दिनों में
इस आधुनिक युग ने
अनमोल ‘प्रेम’ को बना दिया
बाज़ार में बिकने वाला खिलौना
फिर सजा कर दुकानों में
बेचता ये जहां प्यार के नाम पर
कृत्रिम दिखावटी चार पल में
चमक बिखेर मिटने वाला सितारा
जिसमें नहीं वो चमक
जो मिटा सके अंतर में फैला अँधियारा
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देखते-देखते ‘इंद्रधनुषी प्रेमोत्सव’ का आखिरी रंग भी अपनी आभा दिखाकर फिर धूमिल होने की कगार पर भी पहुँच चुका याने कि अब ये महज़ बाज़ार द्वारा आयोजित आठ दिनों तक चलने वाला एक प्रायोजित कार्यक्रम मात्र बन रह गया जिसके हर दिन अलग-अलग एपिसोड प्रसारित होते जिसके बाद पर्दा गिराकर समापन कर दिया जाता वैसे तो हम सब जानते कि ‘चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात हैं’ तो फर्क केवल इतना पड़ा कि अब वो चार दिनी न रहकर आठ दिवसीय हो गयी हैं मगर, अंत तो वही हैं न कि पहले चकाचौंध रौशनी फिर एकदम से घुप्प अँधेरा छा जाना कि जो भी मिला इन दिनों में वो क्षणिक था सिर्फ उस दिवस का वो ख़ास अहसास जिसे एक दिन में बांधकर २४ घंटे केवल उसको ही जिया लेकिन घड़ी के साथ समय और दिन के साथ तारीख बदलते ही उस अहसास के उपर किसी दूसरे ही अहसास का रंग चढ़ गया तो फिर तो वही हुआ जो होना था मतलब कि जब हम ‘इंद्रधनुष’ के सारे रंगों को आपस में मिला देते तो ‘काला’ रंग बन जाता कुछ ऐसा ही आज के दिन भी होता जब पिछले सात दिनों को अलग-अलग नाम के साथ अलग-अलग जज्बात के साथ मनाया जाता और अंतिम दिन को ‘प्रेम-दिवस’ का नाम दे दिया जाता गोया कि पिछले साथ दिनों जो भी हुआ उसमें प्रेम शामिल नहीं था अगर, था तो फिर उसे अलग से मनाने की जरूरत क्या और अगर नहीं था तो जिस तरह उन दिनों के साथ औपचारिकता का निर्वहन किया गया उसी तरह से इस दिवस को भी महज़ खानापूर्ति के रूप में मनाकर अगले दिन आदमी फिर से अपने पुराने कामों के साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लौट जायेगा जहाँ इन सबकी सिर्फ यादें ही शेष रहेगी लेकिन जिसने इन दिनों को नहीं बल्कि इससे जुड़े ‘अहसासों’ को वास्तविक रूप में समझा होगा अपने अंतर में महसूस कर जीया होगा तो फिर उसे किसी दिन या तारीख से कोई असर न पड़ेगा कि उसके लिये वो अहसास मायने रखता न कि वो दिन तभी तो वो बिना दिन के भी उसे जब चाहेगा तब मना सकेगा और जिसने खुद को इससे बाँध लिया वो तो अगले साल ही दुबारा इसे पा सकेगा तभी तो लोग कहते कि प्रेम किसी दिन का मोहताज़ नहीं लेकिन इसका मतलब नहीं कि इसे मनाया न जाए बल्कि लोगों का कहना कि हर दिन ही प्रेम से पगे तो सिर्फ एक दिन ही उसका जशन क्या मनाना बल्कि रोज उसमें ही डूबे रहने उसे इस कदर अपने में समो लेना कि वो सहज ही प्रकट हो न कि किसी सामान या दिन के आने पर ही उसका  भाव जगे     

‘प्यार’ का अहसास तो प्रकृति में चारों तरफ बिखरा पड़ा कहीं भी नजर डालो वो दिख जायेगा चाहे फिर वो फूलों पर मंडराती तितलियों की शक्ल में हो या दो पक्षियों का आपस में चोंच लड़ाने वाले दृश्य में हो या फिर शमा के जलते ही झट उस पर अपनी जान लुटाने को आतुर डोलते परवाने की प्राण आहुति में हो ये सब ही प्रेम की अद्भुत प्राकृतिक मिसाल हैं जिन्हें देखकर उस ‘मुहब्बत’ के वास्तविक मायने को बड़ी ही आसानी से समझा सकता और फिर अपने भीतर भी उस प्रेम लौ को जलते हुये महसूस किया जा सकता शायद, तभी इश्क़ को ‘आग का दरिया’ कहा गया जिसमें अपने आप को जलाकर ही सोने की तरह निखारा जाता हैं फिर उस कुंदन की चमक कभी न तो फीकी पड़ती और न ही उसका मोल कम हो पाता यही तो हैं सच्चा प्यार जो दिनों दिन बढ़ता ही जाता न कि कुछ दिनों जताकर उसके बाद फिर अगले साल का इंतजार किया जाता जिसने भी अपने ही भीतर छिपे उस अनमोल प्रेम का साक्षात्कार कर लिया फिर उसे किसी भी दिखावटी अहसास की जरूरत नहीं होती न ही वो कहीं भटकता बल्कि वो तो ‘प्यासे चातक’ की तरह भले ही आस-पास कितनी नदिया या सागर क्यों न हो मगर, केवल स्वाति नक्षत्र की जल बूंदों से अपनी तृष्णा मिटाता जिसने इसे साध लिया उसकी प्रेम पिपासा फिर पोखर के जल से बुझ सकती भी नहीं उसे तो सिर्फ अपना ही वो अहसास चाहिये जो कहीं भी नहीं मिलता हम तो कस्तुरी मृग की तरह उसे अपने भीतर लिये फिरते लेकिन इस सच्चाई से अनजान होने के कारण उसे चारों तरफ ढूंढते तो इस ‘वैलेंटाइन डे’ यदि हम भी ये रहस्य जान ले तो फिर हमें भी अपना प्रेम तलाश न करना पड़ेगा बल्कि वो तो ‘परवाने’ की तरह हमें खुद ही खोजता हुआ चला आयेगा और हम भी उसे अपना सर्वस्व समर्पित कर उसके अस्तित्व में यूँ समा जायेंगे कि दो लोग मिलकर एक हो जायेंगे जिसे कि ‘दो जिस्म एक जान’ कहते जहाँ तेरे-मेरे का भेद न होकर शेष रहता तो सिर्फ ‘हम’ का भाव जिसने इसे साध लिया उसने जग पा लिया तो मान ले कि ‘प्रेम’ बाहर से आसान दिखाई देने वाली एक कठिन तपस्या और अपने प्रियतम के प्रति पूर्ण समर्पित होकर की जाने वाली अटूट साधना हैं जो सात-आठ दिनों में नहीं बल्कि सात जन्मों में पूर्ण हो पाती शायद, तभी हमारे यहाँ प्यार के इस संबंध को सात जन्मों का बंधन माना गया हैं तो यदि आप भी इसे दिनों नहीं बल्कि जन्मों में बदला चाहते तो फिर ‘परवाने’ और ‘चातक’ को बनाना अपना ‘लव गुरु’... उसके बाद करना प्यार शुरू... इसके साथ इस ‘प्रेम दिवस’ में पाओ अपना प्यार हरसू... :) :) :) !!!          
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१४ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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