मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

सुर-४१२ : "दादा साहब फालके... हम तुझे पुकारते...!!!"


दोस्तों...

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बनकर माँ
उसने जन्मा
भारतीय सिनेमा
स्थिर चित्रों को चला
बनाया प्रथम मूक चलचित्र
तो हो गये सजीव
पन्नों पर लिखे चरित्र
फिल्म दर फिल्म
कहानियों को मिली जमीन
इस तरह पड़ गयी
‘हिंदी सिनेमा’ की नींव
जिससे मिला हमें  
मनोरंजन का नया साधन
और ‘दादा साहब फाल्के’ कहलाये
हिंदी फिल्मों के पितामह
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“सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र”

ये १७ मई १९१३ को प्रदर्शित होने भारत की सबसे पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का अनोखा विज्ञापन हैं जिसके प्रदर्शन के साथ ही भारतीय सिनेमा की नींव पड़ी जिसकी लागत लगभग पंद्रह हजार रूपये आई थी जो कि उस दौर की बड़ी ही रकम कही जायेगी और इसे बनाने वाले ‘धुंदीराज फाल्के’ जिन्हें कि हम सब ‘दादा साहब फाल्के’ के नाम से बेहतर तरीके से जानते हैं बन गये ‘हिंदी सिनेमा’ के जनक उस जमाने में जबकि लोगों के पास मनोरंजन के लिये ‘नाटक’ या थियेटर का प्रचलन अधिक था और केवल दो आने में छह घंटे का ड्रामा देखने मिल जाता था तो ऐसे में ‘तीन आने’ खर्च कर कोई केवल एक घंटे की फिल्म देखने क्यों आयेगा भला तो कुछ अलग करने का सोचा गया जिसने इस तरह के विज्ञापन बनाने का धांसू विचार दिया जिसकी वजह से दूसरे दिन ‘कारोनेशन थियेटर’ जहाँ ये फिल्म लगी थी में इतनी अधिक भीड़ थी कि तिल रखने तक की जगह नहीं थी और जब दर्शकों ने पौराणिक गाथा के पात्रों को रजत पर्दे पर चलते-फिरते देखा तो वाह-वाह कर झूमने लगे फिर क्या इस तरह से ‘फालके जी’ का वो ख़्वाब जो उन्होंने बचपन से देखा था इस तरह से साकार हुआ वो भी उस दौर में जबकि हमारे देश में इस विधा के न तो जानकार थे और न ही ऐसी उच्च तकनीक व उन्नत मशीन जिसके इस्तेमाल से उस कल्पना को परदे और चलचित्रों के माध्यम से दर्शाया जा सके मगर, जिनके हौंसलों में कुछ कर गुजरने का माद्दा होता वे किसी मुश्किल से न घबराते तो वही हुआ कि हर तरह की कठिनाइयों का सामना कर ‘फालके साहब’ ने अपनी आकांक्षा को पूरा कर ही दम लिया वो भी सिर्फ़ आर्थिक तंगी ही नहीं बल्कि कलाकारों की कमी को भी हर तरह से पूरा किया यहाँ तक कि महिला चरित्र को निभाने कोई नायिका न मिली तो एक पुरुष को लड़की बनाकर अभिनेत्री की जगह लिया पर, अपने इरादे को टालना गंवारा न किया बल्कि वे तो इसे पूरे देश के दर्शकों के समक्ष ले जाने के लिये ताकि कोई उनके इस अभिनव सृजन से वंचित न रह जाये उसे बैलगाड़ी में पूरे साजो-सामान के साथ रख दूर-दराज के गाँव-गाँव, शहर-शहर ले जाकर लोगों को दिखाने लगे जिससे उन्हें कमाई तो बेशक उतनी नहीं हुई मगर, संतुष्टि बेहद हुई जिसके लिये उन्होंने इतनी परेशानियों को झेलकर इसका निर्माण किया था

उनके इस कार्य में उनके परिवार का भी पूर्ण सहयोग उनको प्राप्त हुआ था जिसे नकारा नहीं का सकता उनकी पत्नी, पांच बेटे और तीन बेटियों के अतिरिक्त कुछ रिश्तेदारों ने भी भरपूर योगदान दिया जिसकी वजह से उनका हौंसला यदि कभी कम पड़ भी गया तो उन सबने सहारा देकर उनको आगे बढ़ने प्रेरित किया इस फिल्म के बाद वे नासिक जाकर रहने लगे और वही से फिल्म निर्माण का कार्य जारी रखा और धीरे-धीरे उनकी संस्था ‘फालके फिल्म्स’ में सदस्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते सौ से अधिक हो गयी जो सब मिलकर एक परिवार की तरह रहते और इसके बाद उन्होंने ‘भस्मासुर मोहिनी’ व ‘सावित्री’ नामक फ़िल्में भी बनाई और फिर तीनों फिल्मों को लेकर इंग्लैंड लेकर गये जहाँ सभी ने उनकी बड़ी तारीफ की फिर तो  ये सिल्सिअला तेजी से निकल पड़ा और अंतिम फिल्म ‘गंगावतरण’ तक उन्होंने कुल १२५ फिल्मों का निर्माण किया और आज ही के दिन १६ फरवरी को वे हमें छोडकर चले गये आज उनकी पुण्यतिथि पर उनको समर्पित ये शब्दांजलि... :) :) :) !!!
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१६ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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