रविवार, 21 फ़रवरी 2016

सुर-४१७ : "अधखुले दरवाजे का सच... !!!"


दोस्तों...

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कभी-कभी खुले दरवाजे सी राह तकती रहती आँखें अपलक मगर, जिसका इंतज़ार हो वो कभी उन पटल को बंद कर विश्रांति का सुख देने नहीं आता काठ के पटों की तरह नयन भी हो जाते काठ के और फिर एक दिन विरह की अग्नि में जल मिट जाता उनका अस्तित्व.... दरवाजे तो फिर भी बेजान उस पीड़ा को क्या समझे जो जीवित आँखों को किसी बेमियाद अभिशाप की तरह सहनी पड़ती---

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वो अधखुला दरवाजा
अब भी उसी तरह ज्यों का त्यों
आस की गिरती दीवारों को
अपने निराश काँधे पर लिये खड़ा हैं
जबकि जवाब देने लगे अब उसके
दम तोड़ती हुई आशा को फिर
जीने की तमन्ना से जोड़ते
हौंसलों के वो जिंदादिल कुंदे
फिर भी गिरते नहीं उसके पल्ले
न ही होते कभी बंद
भले फिर चले कितनी भी तेज
रंजो-गम की आँधियाँ
अपनी आस्था की मजबूत चौखट पर
बड़ा भरोसा हैं उसको कि वो
उसे टूटने न देगी उस अंतिम पल तक
आखिरी कील भी उम्मीद की
गिर न जायेगी जब तक
जब हो इंतज़ार की हद इस तरह
तब भला चाहत बेहद न हो किस तरह ।।

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दुर्भाग्य और इंतज़ार करते दरवाजे की इस हौड़ में अक्सर दुर्भाग्य जीत जाता... मगर, दरवाजा हारकर भी राह दिखाता कि आने वाला भले न आया पर, उसने अंतिम सांस तक इंतज़ार किया... जब तक आस की एक कील भी बाकी थी उसने संघर्ष किया खुद को हालात के हवाले नहीं किया... इस जज्बे ने ही पाषाण बनी 'अहिल्या' को पुनर्जीवित किया... J J J !!!
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२१  फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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