गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

सुर-४२१ : "वादे संग ऐतबार पलता... एक के साथ दूसरा भी टूटता...!!!"

दोस्तों...

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‘भरोसा’
चाहे हो किसी का
बड़ी मुश्किल से हासिल होता
जिसे रखना बरकरार
होता बड़ा कठिन
और गंवाना बड़ा ही सहज
तभी तो कोई भी
उसको आसानी से खो देता
और दुखद कि अहसास तक नहीं होता
मगर, जिसने किया उसको तो
बड़ा भारी सदमा लगता
एक पल जीना भी दूभर हो जाता
तो दूसरी तरफ कोई
अपनी ही वादाखिलाफी से परे
जीवन के पल-पल का मजा लेता   
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‘वादा’ और ‘ऐतबार’ जैसे एक सिक्के के दो पहलू चाहे कहो ‘हेड’ या फिर ‘टेल’... इसे आप किसी खेल के दो निर्णय ‘जीत’ या ‘हार’ की तरह भी समझ सकते फिर भी ये तय कि चाहे दो कोई भी नाम इस अहसास को कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक के बिना दूजे का अस्तित्व संभव नहीं होता क्योंकि दोनों का एक-दूजे से बड़ा ही गहरा संबंध होता जिसे पृथक नहीं किया जा सकता वजह ये कि जब भी कोई किसी से कोई भी ‘वादा’ करता तो ‘ऐतबार’ स्वतः ही सक्रिय हो जाता या जब मन के भीतर ‘ऐतबार’ होता तभी तो ‘वादा’ किया जाता याने कि जब भी किसी को कोई वचन दिया जाता तो अगला अपने आप ही उसके पूर्ण होने का भरोसा कर लेता क्योंकि यदि उसने ऐसा नहीं किया तब कहने वाले की बात निरर्थक होकर रह जायेगी जब किसी को आप पर विश्वास ही नहीं तो फिर ‘वादा’ करने की भी कोई आवश्यकता ही न रह जायेगी इसलिये ‘वादे’ के साथ ‘ऐतबार’ भी बंधा हुआ चला आता और जब तक ये न हो ‘वादा’ महज़ कोरी बात बनकर रह जाता जिसमें प्राण फूंकने का काम यही तो करता... इसी तरह जब आप किसी पर बहुत ज्यादा भरोसा करते तो उससे आपकी अपेक्षा बढ़ जाती जिन्हें पूर्ण करने का यदि कोई भी औपचारिक करार हो जाये तो बेचैन दिल को भी करार आ जाता लगता कि जो भी कहा गया वो जरुर ही पूर्ण होगा इसलिये तो जब अंतर में सहज ही ये भाव बसा होता तो फिर उसे हर किसी की बात पर पूर्ण विश्वास होता और वो बिना किसी शंका के सामने वाले के कहे गये शब्दों पर पूरा विश्वास करता मतलब कि ‘वादे’ के लिये ‘ऐतबार’ तो ‘ऐतबार’ के लिये ‘वादे’ का होना जरूरी कि वही तो दूजे को सार्थक बनाता हैं

इसमें गौरतलब ये भी कि ‘वादा’ करना तो फिर भी आसां कि सिर्फ कुछ शब्द ही तो कहना किसी से लेकिन ‘ऐतबार’ उसका अंतर की कोमल जमीन पर जनम लेना जरा मुश्किल होता कि ये कोई खर-पतवार नहीं जो किसी भी भूमि पर पैदा हो जाये ये तो केवल जो सच्चे व ईमानदार होते उनके अंदर सहज ही भरा होता तभी तो वे हर किसी पर भरोसा कर लेते लेकिन जब उसी भरोसे को चोट पहुँचती तो फिर उसका इलाज़ दुनिया के किसी दवाखाने में मुमकिन नहीं क्योंकि ये कोई वस्तु नहीं जो टूटकर फिर जुड़ जाये ये तो केवल एक भाव होता जो कभी अपने आप तो कभी किसी के द्वारा भीतर उत्पन्न होता जिसे उसी तरह बनाये रखना या उससे भी अधिक मजबूत बनाना किसी अगले व्यक्ति पर निर्भर करता वो भी तब जब वो किसी से जुड़ा होता ऐसे में यदि वादा करने वाला उसे भूला दे या उसे तोड़ दे तो फिर उसका दुबारा उसी तरह से निर्माण संभव नहीं होता कि इसे बनाने वाला ईट-गारा दुनिया की किसी भी दुकान में उपलब्ध नहीं होता बल्कि ये तो ‘मन’ के अदृश्य महीन तंतुओं से बना होता और जब यही ‘ऐतबार’ किसी भी बंदे का अपने आप पर होता तो फिर उसे तोड़ पाना सिवाय उस व्यक्ति की अपनी ही करनी के किसी के भी लिये मुमकिन नहीं होता इसलिये अक्सर, ये कभी किसी अपने तो कभी किसी पराये के हाथों धोखा खाता ही रहता और टूट-टूटकर एक दिन दुनियावी रंग में रंगकर अन्य लोगों की तरह गिरगिट के रंग-रूप में ढल जाता फिर न किसी से कोई तवक्को और न ही कोई वादा करता यदि करता भी उसके शब्दों में ही वो वजन नहीं होता कि किसी के मन में कोई विश्वास जगे तो ऐसे में उसका अपना वास्तविक स्वरूप ही बदल जाता फिर जिसका होना या न होना कोई मायने ही नहीं रखता हैं ।              

जब भी कहीं कोई ‘वादा’ टूटता तो साथ उसके कहीं कोई ‘ऐतबार’ भी टूटता चाहे किसी को खबर हो या न हो लेकिन जिसमें संवेदनायें भरी वो अपने आप ही उस दर्द की लहर को महसूस कर लेता और ये भी जानता कि भले ही अब कुछ उससे भी अच्छा हो जाये या अगले को अपनी भूल का अहसास हो और वो वापस ही क्यों न आ जाये मगर, जो टूट गया वो तो फिर जुड़ने से रहा इसलिये जब भी किसी से ‘वादा’ करना ये ध्यान रखना कि आपके वादा करते ही सामने वाले के भीतर ‘ऐतबार’ का स्विच भी ऑन हो गया जो अब आप पर निर्भर कि आप उसे अपने ही हाथों बंद करते या फिर उसकी रगों में दौड़ती आपके वादे की तरंगों को उस तक पहुँचने से रोक देते जिससे वो स्वतः ही निरर्थक होकर रह जाता... इस तरह ये निश्चित कि ‘वादे’ की किरणों से ही ‘ऐतबार’ का सूरजमुखी खिलता जिसे खिलाये रखना या मुरझाने देना सिर्फ ‘सूरज’ के हाथ में जो यदि दगाबाज हो तो फिर ‘सूरजमुखी’ का बिखरना निश्चित हैं अब ये आप पर निर्भर कि आप क्या करते हो महज़ झूठा एक ‘वादा’ या फिर सच्चा ‘दावा’ जिसकी सशक्त जमीन पर ‘ऐतबार’ की बुलंद ईमारत खड़ी होती... :) :) :) !!!                  
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२५ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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