गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

सुर-४१४ : "खिले गुलाब-सी निम्मी... भूलेंगे न तुम्हें कभी...!!!"


दोस्तों...

___//\\___   

देखी जो उसकी
शोख़ दिल चुराने वाली
भोली-भाली सूरत
सीने पर रखकर फिर हाथ
हर एक देखने वाला
बन गया काठ की मूरत
मंत्रमुग्ध कर गया
ताज़ी हवा का वो झोंका
आया जो ‘बरसात’ में
उसके नयनों के बाण से बचने
मिला न किसी को मौका
‘निम्मी’ के हुस्न की
हल्की-हल्की सी बारिश ने
भिंगो दिया सबको    
ऐसा दिया ‘राजकपूर’ ने तोहफ़ा
---------------------------------------●●●

बात सन १९४८ की हैं जब १८ फ़रवरी, १९३३ को आगरा में जन्मी ‘नबाब बेगम’ फिल्मों में अभिनेत्री बनने का अरमान लेकर मुंबई चली आई थी और उस वक़्त के महान सिने निर्देशक ‘महबूब खान’ अपनी नई फ़िल्म ‘अंदाज़’ बनाने की तैयारी में जुटे हुये थे तो वे उस फिल्म में भूमिका की अपेक्षा लिये उनसे मिलने चली गयी मगर, किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था तो वहां बात जम न सकी ऐसे में मायूस निराश होकर वो वापस अपने गृहनगर जाने की सोच ही रही थी कि शोमेन ‘राजकपूर’ की नजर उन पर पड़ गयी जो उस समय अपने बैनर की अगली फिल्म ‘बरसात’ बनाने के लिये किसी ऐसे ही मासूम और मादकता से भरे सौंदर्य की मलिका की तलाश में थे क्योंकि उनकी फिल्म में एक अल्हड़ शोख़ पहाड़ी गड़ेरिन की भूमिका में वो किसी ताज़ा हवा के झौंके के समान ताज़गी व देशीपन की महक से भरपूर सूरत को लेना चाहते थे तो उन्होंने अपनी फिल्म में ‘नर्गिस’ के समकक्ष इस नई नवेली लड़की को सहायक अभिनेत्री के बराबरी के रोल के लिये साईन कर लिया जिसमें उनके नायक ‘प्रेमनाथ’ थे और उसे नया नाम ‘निम्मी’ भी मिल गया था जिसके साथ उनका रजत पर्दे पर आगमन हुआ और इस फिल्म ने उस दौर में सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये उसके मधुरतम गीतों की गूंज तो अब तक हमारे कानों में सुनाई देती हैं कि उन्हें भूल पाना नामुमकिन आज भी भले कोई ‘निम्मी’ को न जानता न हो लेकिन उसने “हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का...” या “जिया बेकरार हैं छाई बहार हैं... आ जा मोरे बलमा तेरा इंतजार हैं” या “बरसात में हमसे मिले तुम सजन.. तुमसे मिले हम... बरसात में...” गाने तो जरुर ही सुने होंगे जिसमें ‘निम्मी’ के बरसाती नदी समान छलछलाते सौंदर्य ने हर किसी को अपनी गिरफ़्त में ले लिया उसकी बड़ी-बड़ी बिल्लोरी आँखें उस पर कमान सी तनी भवे और अधखुले अधरों ने तो मानो सभी पर सम्मोहन कर दिया हो तो जो भी देखता बस, देखता ही रह जाता था और इस तरह ‘नर्गिस’, ‘मीना कुमारी’ एवं ‘मधुबाला’ जैसे सफलतम स्थापित नायिकाओं के बीच उसने फ़िल्मी पटल पर एक जोरदार दस्तक दी जिसकी दमदार आवाज़ ने हर किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया जिसके कारण उसने अपने बलबूते पर अपना अलग दर्शक वर्ग खड़ा कर लिया था ।

कहते हैं कि जब भी वो परदे पर आती तो उनके अप्रतिम सौन्दर्य की चकाचौंध जो खिले गुलाब सी ताजगी से भरपूर होने के साथ-साथ बच्चों-सी मासूमियत भी समेटा था तिस पर उनकी भोली-भाली अदाये और सादगी का अनोखा मिश्रण उनके अभिनय को चार-चाँद लगा देते थे जिसके कारण उनके सह-कलाकार की चमक उनके सामने फीकी पड़ जाती थी शायद, यही वजह रही कि ‘बरसात’ और ‘दीदार’ के बाद बहुमुखी प्रतिभा की धनी ‘नर्गिस’ तो... ‘आन’, ‘अमर’, ’उड़नखटोला’, ‘दीदार’ और ‘दाग’ के बाद अभिनय सम्राट व ट्रेजेडी किंग कहे जाने वाले ‘दिलीप कुमार’ ने भी फिर उनके साथ काम नहीं किया क्योंकि भले ही फिल्म में उनकी भूमिका एकदम छोटी सी हो लेकिन उतने ही अल्प समय में वो अपनी उपस्थिति मात्र से बिना बोले भी ऐसा जबर्दस्त आभामंडल बना देती थी कि उस दृश्य में दर्शक सिर्फ उनको ही याद रखते थे इस तरह अपने दिग्गज सहायक कलाकारों की आँखों के सामने से ही वो न सिर्फ वाह-वाही बल्कि पूरा दृश्य चुराकर ले जाती थी जिसके कारण अधिकांश बड़े अदाकार उनके साथ काम करने से कतराते थे ये उनकी कुदरती काबिलियत का कुछ ऐसा ही आतंक था जैसा कि किसी जमाने में ‘राजकुमार’ का था जिसकी वजह से उस युग की बहुत सी श्रेष्ठ भूमिकायें उनके अभिनय से वंचित रह गयी जिसका एक कारण ये भी था कि रोल को हथियाने का हुनर उनको आता नहीं था तो केवल अपनी अदाकारी के जलवे से ही किसी को परास्त करने का दम रखती थी उनकी नैसर्गिक सुंदरता से सजे सहज-सरल अभिनय की तारीफ़ तो विदेशों में भी बहुत हुई जब भारत की पहली रंगीन फिल्म कही जाने वाली ‘आन’ फिल्म भारत के साथ-साथ लंदन में भी अंग्रेजी भाषा में 'सेवेज प्रिंसेज' के नाम से प्रदर्शित हुई तो वहां के अख़बारों में उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की यहाँ तक कि ‘देव आनंद’ के साथ बनी उनकी फिल्म ‘आंधियां’ को तो उस दौर में ही ‘कांस फेस्टिवल’ में दिखाया गया था ।

अपने सोलह साला फ़िल्मी कैरियर में ‘निम्मी’ ने लगभग ४४ फिल्मों में अभिनय किया जिसमें से अधिकांश सफल रही और उन्होंने उस दौर के सभी ख्याति प्राप्त अदाकारों के संग अभिनय कर अपना परचम लहराया और उनकी आखिरी फिल्म यूँ तो ‘राजेंद्र कुमार’ की बहन के रूप में अभिनीत ‘मेरे मेहबूब’ थी लेकिन उसके पूर्व से बन रही ‘लव एंड गॉड’ जो किसी कारणवश पूर्ण न हो पा रही थी अंततः १९८७ में रिलीज हुई जिसे उनकी अंतिम प्रदर्शित फिल्म माना जा सकता हैं... आज उनके जन्मदिवस के शुभ अवसर पर उनको शब्दों का ये गुलदस्ता पेश कर रही हूँ... :) :) :) :) !!!
__________________________________________________
१८ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
●--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: