सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

सुर-४१८ : "संत रविदास जयंती... मन में हर्ष भरती...!!!"

दोस्तों...

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अंतर में
जगती जिसके
ईश्वर की असीम भक्ति
मिलती उसे प्रभु से
पुण्य कर्म करने की शक्ति
चाहे हो कोई हालात
फिर न उसकी राह थमती
अपनी ही गति से
उसकी आत्मिक ज्योत बढ़ती
जिसकी रौशनी से
हर मन की चेतना जलती
ऐसी दिव्य आत्मा
‘संत रविदास’ की आई जयंती
हाथ जोड़कर दुनिया
उस महान पथ-प्रदर्शक को
सच्चे मन से आज नमन करती
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जिस काल में ‘रविदास’ का जन्म हुआ उस समय राष्ट्र में जात-पात में भेदभाव की भावना और धर्म-कर्म में भी अनेकानेक कुरीतियों को चलन था जिसकी वजह से आम जन का जीवन बेहद दूभर हो चला था अतः समाज के ठेकेदारों की कट्टरता को समाप्त करने व जन-जन में चेतना की लहर प्रवाहित करने कई पवित्र आत्माओं का इस धरती पर आगमन हुआ जिन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी के माध्यम से जागरूकता फ़ैलाने के साथ-साथ मानव मन में भरी गंदगी को धोने का भी प्रयास किया और बड़ी सहजता-सरलता से अपने सादा लफ्जों में धर्म की कठिन से कठिन बातों को इंसानियत के मर्म को सबके मध्य वितरित करने का पुण्य काज किया और आज तलक भी उनके न रहने के बावजूद भी उनके वे शब्द इस पृथ्वी लोक पर उसी तरह विद्यमान हैं जिस तरह से सूरज-चाँद अटल हैं क्योंकि ये एक अटल सत्य हैं कि ‘अक्षर’ तो साक्षात ब्रम्ह का स्वरूप हैं जो कभी मिटते नहीं बल्कि ॐ के नाद रूप में इसी अन्तरिक्ष में विचरते रहते और जब भी कोई उनका आह्वान करता तो वे उसके अंतर में उतर आते प्रकृति का सारा रहस्य, सारा ज्ञान सूक्ष्म तरंगों के रूप में वायु में घुला हुआ जिसे हर कोई ग्रहण नहीं कर सकता इसके लिये उसके भीतर उनको जानने की इच्छा शक्ति और ललक होना चाहिये तभी वो उसके अंदर वायु के माध्यम से प्रवेश कर उसके सुप्त तन्तुओं को जगा देता जिससे फिर वो एक पथ प्रदर्शक एक निस्वार्थ सेवक की भांति उस ज्ञान को पुनः अज्ञानियों की बीच बाँट अपना दायित्व पूरा करता कुछ ऐसा ही नेक काज किया उन सभी परोपकारी संत-महात्माओं ने जो इस धरती पर केवल एक धर्म ‘मानवीयता’ का प्रचार-प्रसार करने ही आये थे और जिसकी खातिर उन्होंने अपना सर्वस्व लोक सेवा को समर्पित कर दिया और अंतकाल तक अपनी जगह दूसरों का ख्याल किया, दूसरों के हित को सामने रखा तभी तो उनके सद्प्रयासों से इस दकियानूसी समाज में हम परम्पराओं की बहुत सी बेड़ियों से स्वयं को आज़ाद पाते हैं

‘रैदास’ जन्म से चर्मकार कुल के वंशज होने के कारण उस समय में हेय दृष्टि से देखे जाते क्योंकि तब समाज में वर्ण व्यवस्था का राज था जिसके कारण ‘ब्राम्हण’ उच्चतम तो ‘शुद्र’ को निम्नतम दर्जा प्राप्त था तो जो भी नीच कुल में जनम लेता उसके साथ उच्च कुल के अहमी व्यक्तियों के द्वारा बड़ा ही बुरा व्यवहार किया जाता था लेकिन वे तो ईश्वर सन्तान थे तो उन्होंने अपने इस जातिगत पेशे को कभी भी कमतर नहीं समझा बल्कि जिस घर, जिस जात में प्रभु ने उनको जनम दिया उसका पूरा सम्मान करते हुये उसे पूरे मन से अपनाया और अपना काम बड़ी ही कार्यकुशलता, दक्षता, पुरे मनोयोग से निर्धारित समय अवधि में किया जिसने उनको सर्वप्रिय बनाया उस पर उनका मधुर व्यवहार, मीठी बोली और गहरे दर्शन से भरी हुई बातों ने बड़े-बड़े जानकारों का ध्यान भी उनकी तरफ आकर्षित करवाया और लोग अपने काम के साथ-साथ सत्संग का लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से भी उनके करीब आने लगे क्योंकि वे बिना लाग-लपेट के बड़े ही सरल शब्दों में कठोर-से-कठोर बातें और गहरे-से-गहरे जीवन दर्शन को भी व्यक्त करने की काबिलियत रखते थे जो उनका प्राकृतिक बोले तो ईश्वर प्रदत्त गुण था कि भगवान ने तो उनको इस धरती पर अपना संदेशवाहक बनाकर भेजा था, अपने गहन अध्यात्म को लोगों के दिलों में बिठाने उनको चुना था ताकि वे अपने प्रवचन के जरिये उनकी वाणी को लोगों तक पहुंचा दे तो ‘रविदास’ ने भी ये काम बड़ी ही आसानी से अपने कर्म के साथ किया वे दोनों हाथों से चमड़े को काटते-पिटते या रंगते भी अपनी दृष्टि को भृकुटी के मध्य में स्थिर रखते हुये अपनी जिह्वा से रब की इबादत करते रहते थे फिर भला किस तरह से उनका मन कभी भी विचलित होता क्योंकि उन्होंने तो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह से साध लिया था तो फिर किसी भी दृश्य या बात से उनके प्रभु भक्ति में स्थिर ध्यान के भटकने की संभावना बनती ही नहीं थी तो फिर चाहे समाने राजा हो या रंक वे उसको समभाव से ही देखते थे किसी में कोई भेदभाव न करते थे न ही चाहते थे कि कोई दूसरा भी ऐसा करें ।

आज माघी पूर्णिमा पर उन परोपकारी निःस्वार्थ समाज सेवक उपदेशक ‘संत रविदास’ की जयंती मनाई जा रही जिन्होंने हमारे मष्तिष्क में बसे ज्ञान पर पड़े पर्दे को हटाने का अथक प्रयास किया और कुछ अंशों में उसमें सफल भी रहे तभी तो आज भी हम उनकी वाणी को दोहराते उनका स्मरण करते तो फिर उनके जन्मदिन पर देते उनको बधाई जिनकी अपार कृपा जाये न कभी भुलाई.... :) :) :) !!!
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२२ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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