सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

सुर-४११ : "आया न बाद तेरे कोई ऐसा सुखनवर... 'मिर्ज़ा ग़ालिब' तू आज भी राज करता दिलों पर...!!!"

दोस्तों...

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'ग़ालिब' के अंदाज़े बयां
आज भी दोहराये ये सारा जहां
जब अचानक आ जाये
किसी के घर कोई अतिप्रिय तो
तो स्वतः ही जुबां से ये निकलता
"कभी हम उनको
कभी अपने घर को देखते हैं'
कैसे भी हो हालात मगर,
"दिल बहलाने ख्याल अच्छा हैं"
कहकर मगन हो जाते
यदि सख्त हो बीमार तो भी
"बीमार का हाल अच्छा हैं" बोलकर
बुझे-बुझेे नयन मुस्कुराने लगते
दिल में हो कसक तो सहकर भी पीड़ा
सूखे-सूखे लब यही गुनगुनाते,
"आख़िर इस दर्द की दवा क्या हैं"
प्यार की हो बात तो सबको समझाते
"ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया हैं और डूबकर जाना हैं"
अपनी अनंत ख्वाहिशों के लिये
सब यही राग अलापते
"बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन
फिर भी कम निकले"
बिछड़ने की घड़ी ये कहकर
अपनों को दिलासा दिलाते कि
"मैं गया वक़्त नहीं कि
फिर लौटकर आ भी न सकूँ"
इतने सारे अशआर हर मौजूं पर
ग़ज़ल के पैग़म्बर 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के
जिनसे रोशन हमारे हर पल
आज उनकी बरसी पर
बस, इतना ही कहना हैं हमको
"दिल में बसे हो तुम..."
और जीवन के हर यादगारी लम्हें में
बसे तुम्हारे सदाबहार अलफ़ाज़
जिनसे गुलज़ार हमारे दिन और रात ।।
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पूछते हैं वो कि ग़ालिबकौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या ???

१५ फरवरी इतिहास की वो दर्दनाक तारीख़ हैं... जिसमें उस्तादों के उस्ताद, शायरों के शायर कम शब्दों में कहे तो गज़ल के मानवीय अवतार... ग़ज़ल को फ़ारसी से आज़ाद कर सहज-सरल उर्दू में बयाँ कर सदियों-सदियों के लिये अमर करने वाले सुखनवर जिनके बारे में कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का हैं अंदाजे बयाँ और... उनके इंतकाल की दुखद खबर दर्ज हैं जिसने हम सबको हर एक अहसास और हर एक विषय पर अपने मन की भावनायें चंद अल्फाजों में अभिव्यक्त करने नायब अशआर दिये जिनके बिना हमारा दिन नहीं गुजरता कि पूरे दिन भर में कोई तो ऐसा लम्हा या पल आ जाता जब अनायास ही जुबान पर उनका लिखा कोई शेर अपने आप ही चला आता उनकी हर आमो-ख़ास मौके पर सरलता से जुबां पर चढ़ जाने वाली और दिल को छू लेने वाली शायरी ने ही उनको जन-जन का लोकप्रिय शायर बनाया और शताब्दियाँ गुजर जाने के बाद भी वो आज भी उतने ही प्रासंगिक कि उन्होंने व्यक्ति की नब्ज को थाम उस पर उसके ही दिल की बात को इस तरह आसान लफ्जों में लिख दिया कि फिर तो जब भी कभी वो अवसर आया सिवा उनके अशआर के कुछ और न याद आया कि उनसा सुखनवर फिर न जमाने में कोई दूजा आया वो तो खुद ही अपने बारे में लिख गये कि---

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता हैं
वो हर इक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता ???

सच, २७ दिसंबर १७९७ को आगरा में जन्मे ‘मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान’ जिन्हें हम सब प्यार से ‘चचा ग़ालिब’ भी कहते आज हम सबके बीच नहीं और जब वे पैदा हुये तो उस वक़्त अंतिम मुग़ल सम्राट जो स्वयं एक उम्दा शायर भी थे ‘बहादुर शाह ज़फर’ का दौर चला रहा था और उन्होंने १८५७ की क्रांति भी देखी इस तरह वो न सिर्फ इतिहास को देख रहे थे बल्कि अपनी कलम से उसे लिख भी रहे थे कि उनके पास अद्भुत भाषा ज्ञान के साथ-साथ जीवन की छोटी-से-छोटी घटना को देखने का एक अलहदा नजरिया था जिसमें दर्शन का पुट देकर वो उसे बेहद ही आसानी से शायरी में ढाल देते और जितना कठिन समय उन्होंने देखा उतने ही विनोदी स्वभाव के वो बनते गये जिसने उन्हें इन विपरीत हालातों से लड़ने का माद्दा दिया और ये उनका सहज हास्य बोध ही था जिसने उन्हें गर्दिश के दौर में भी न सिर्फ जिंदा रखा बल्कि उसे सहन करने की अपरिमित ताकत भी बख्शी तभी तो उनकी हाज़िरजवाबी के किस्से भी उतने मशहूर जितने कि उनके लिखे हुये शेर जो उनके चरित्र की विविध विशेषताओं को दर्शाते

एक बार की बात हैं कि उनके घर किसी हिंदू के घर से बर्फी आई तो उनके एक हिंदू मुरीद ने उनसे पूछा कि--- “क्या आप हिंदू के यहां से आई बर्फी खा लेगें? तो जबान और कलम के धनी मिर्जा गालिब ने तपाक से कहा था मुझे पता नहीं था कि ‘बर्फी’ हिन्दू हो सकती हैं या लड्डू का भी कोई मजहब हो सकता है” ।

इस तरह एक बार किसी दुकानदार ने उधार की गयी शराब के दाम वसूल न होने पर मुकदमा चला दिया तो मुक़दमे की सुनवाई ‘मुफ्ती सदरुद्दीन’ की अदालत में हुई और आरोप सुनाया गया कि इनको उज्रदारी में क्या कहना था, शराब तो उधर मंगवाई ही थी सो कहते ही क्या?

आरोप सुनकर झट शेर पढ़ दिया---

“कर्ज की पीते थे लेकिन समझते थे की
हाँ रंग लाएंगी हमारी फाकामस्ती इक दिन” ॥

मुफ्ती साहब ने अपने पास से वादी को पैसे दे दिए और मिर्जा को छोड़ दिया ।

यूं तो मिर्जा गालिब और बदकिस्मती दोनों साथ-साथ चलते हैं, जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी। जिंदगी के सुनहरे दिनों में वो सिर तक कर्ज में डूबे रहे। रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाजे मिर्जा गालिब की बेगम उमराओं जान को परेशान करते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्जा गालिब के खिलाफ डिक्रियां निकलने लगी। जिसकी वजह से मिर्जा गालिब का गृहस्थ जीवन तनावों से घिरता रहा। मगर क्या मजाल कि इस फनकार को अपने फन से कोई तकलीफ जुदा कर पाती। यहां तक कि तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखता रहा और अंदर ही अंदर रोता रहा। शायद तभी उनकी कलम से यह शेर निकला---

"मेरी किस्मत में "ग़म" अगर इतना था,
दिल भी, या रब, कई दिये होते" ॥

जितनी उनकी मुश्किलें बढ़ी वो उतने ही विनोदी स्वभाव के होते गये और अपने हास्य बोध से उन्होंने हर एक तकलीफ को सरल बना लिया तो फिर तो ये कहना ही था-

रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज।
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।।

इस तरह उन्होंने जीवन भर अपनी कलम से हर एक मोज़ुं पर अपने अशआर कहे जो इतने मकबूल हुये कि आज भी हम अपनी हर एक बात में उनको पढ़ देते वे खुदा को सर्वव्यापी मानते थे मगर, चूँकि उनका अंदाजे बयाँ जुदा तो उसे भी उन्होंने सीधे न कहकर कुछ इस तरह से कहा---

पीने दे मुझको मस्जिद में बैठकर ऐ ग़ालिब
या फिर कोई ऐसी जगह बता दे जहां पर खुदा नहीं है...

इतनी खुबसूरती से रब की हर जगह पर उपस्थिति को शायद, ही किसी ने अभिव्यक्त किया हो यही नहीं उन्होंने तो इश्क़-मुश्क़, दर्दे दिल, ख्वाहिश हर अहसास को यूँ उभारा कि उसके साथ उनके अशआर यूँ जुड़ गये कि जिक्र किसी का भी हो ‘ग़ालिब’ ही याद आते---

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है???

‘गुलज़ार साहब’ ने तो उस गज़ल सम्राट ‘ग़ालिब’ का परिचय अपनी अनूठी शैली में कुछ इस तरह से दिया---

बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा-से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हा खुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है

आज उन्हीं शायर, गज़लकार, हाजिर जवाब, विनोदी स्वभाव और सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ की बरसी पर तहे दिल से सलाम करते हैं... उनके ही लिखे अशआरों से उनका स्मरण करते हैं... :) :) :) !!!  
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१५ फरवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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