रविवार, 7 फ़रवरी 2016

सुर-४०३ : "इंद्रधनुषी प्रेमोत्सव का पहला रंग : ऱोज डे...!!!"


दोस्तों...

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गुलों में गुल
बना ‘गुलाब’ सुर्ख
रंगों में रंग
जब हो ‘लाल’ संग
रिश्तों में रिश्ता
साथी जैसे ‘फ़रिश्ता’
अहसासों में अहसास
‘प्यार’ जो चलाये सांस
हो जाये अगर,
इन सबका एक साथ मेल
तो न हो कोई फिर जीवन में फेल
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भारतीय संस्कृति में ‘सात’ अंक का बड़ा ही गहरा महत्व हैं जिसमें एक गहन दर्शन भी छिपा हुआ हैं चाहे फिर वो सात ‘सुर’ हो या सात ‘जनम’ या सात ‘फेरे’ या सात ‘आसमान’ या सात ‘दिन’ या सात ‘समंदर’ या इंद्रधनुष के सुनहरे सात ‘रंग’ इनकी ये संख्या महज़ इत्तेफ़ाक नहीं न ही सिर्फ़ कोई भी संख्या निश्चित करनी थी तो ‘सात’ ही ले लिया यदि ऐसा होता तो फिर कोई भी इनको बदल देता और इनके प्रति यूँ आकर्षित न होता पर, हमारे यहाँ तो हर चीज़ के पीछे कोई न कोई महत्वपूर्ण व ठोस वजह होती जिसके कारण उसे चुना जाता तो इन सबकी एक समान संख्या भी विशेष कारण या वजह की तरफ इशारा करती जिसे नजरअंदाज़ कर पाना मुमकिन नहीं तो शायद, आज के समय के आयातित एवं विवदास्पद ‘प्रेमोत्सव’ को सप्त दिवस आयोजन के अंतर्गत अलग-अलग दिन के रूप में मनाकर अंतिम दिन जो कि आँठवा होता के साथ समाप्त करना भी किसी विशेष मायने की तरफ इशारा करता जिसे हम समझ नहीं पाते कि ये हमारे यहाँ का पर्व नहीं न ही हमारे यहाँ इस तरह के दिवस मनाने का प्रचलन हैं लेकिन जिस तरह से वैश्वीकरण के आधुनिक युग ने सम्पूर्ण भूमंडल को एक सूत्र में बाँध दिया तो फिर उनकी संस्कृतियों के मध्य भी तो इस तरह का आदान-प्रदान होगा ही तभी तो आज हम दूसरे देशों में मनाये जाने वाले पर्वों को भी अपनी ही संस्कृति का हिस्सा मान यूँ मनाने लगे जैसे वो हमारी विभिन्न तरह-तरह की परंपराओं को जोड़ने की एक कड़ी हो

जिस तरह से हमारे यहाँ कि बहुत सारी चीजें वो न सिर्फ इस्तेमाल करते जा रहे हैं बल्कि उनका गुणगान भी कर रहे तो फिर हम किस तरह से अछूते रह जाये कि केवल उपरी परिधान या भाषा या खान-पान ही नहीं हमने तो अब तीज-त्योहारों को भी अपना ही मान लिया और जब भी कोई तारीख आती तो हम दूर-दराज के मुल्कों में मनाये जाने वाले दिनों का भी जायजा लेते और फिर उसे मनाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते कि हमने कभी भेद-भाव को तरजीह दी नहीं लेकिन अपने हिसाब से उन दिनों का स्वरुप बदल जरुर लिया तभी तो ‘फरवरी’ का महीना आते ही सबकी नजरें उन आठ दिनों पर गड़ जातो जिसमें सभी लोग अलग-अलग दिनों में अलग-अलग पर्व मनाते मगर, इसकी गंभीरता नहीं समझते बल्कि अपने स्वभाव के अनुसार उनको अपने स्वार्थ के हिसाब से परिवर्तित कर लिया इसलिये तो इस ‘प्रेमोत्सव’ को विरोध का सामना करना पड़ता जबकि इसमें यूँ तो कोई बुराई नहीं लेकिन जिस तरह से युवाओं ने इन दिनों को अपनी सस्ती भावनाओं के प्रदर्शन का जरिया बनाया और अपनी अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति का सहज-सरल मार्ग समझा उसके कारण तथाकथित बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार इसे नापसंद करते क्योंकि वे जानते कि इसकी आड़ में केवल अपनी वासनाओं की पूर्ति की जायेगी लेकिन यदि इसे मनाने वाले केवल औपचारिकता का निर्वहन करने की जगह इसकी गंभीरता को समझे इनमें छिपे दर्शन को पहचाने तो फिर किसी को भी इसमें कोई आपत्ति न होगी क्यंकि जिस तरह हमारे यहाँ विदेशियों के भोजन पिज़्ज़ा, बर्गर, हॉट डॉग, नूडल्स आदि को देशी तड़का लगाकर अपना लिया उसी तरह से इन दिनों में भी अपनी भारतीयता का रंग घोलकर इन्हें भी देशी त्योहारों में बदला जा सकता वैसे भी खुश होने की वजह तलाशने वालों को तो ये दिन ख़ुशी ही देते और जिनको मन-मुटाव रास आता उनके लिये ये झगड़े के कारण बन जाते

आज ‘इंद्रधनुषी प्रेमोत्सव’ का पहला रंग ‘रोज डे’ मनाया गया... लोगों ने एक-दुसरे को अलग-अलग रंग के गुलाब देकर अपनी मनोभावनाओं का इज़हार किया जिसने उदास चेहरों पर मुस्कान की छटा बिखेर उन्हें ख़ुशी से भर दिया तो ऐसे में ये दिन बुरा किस तरह हो सकता जो किसी भी व्यक्ति के भीतर एक गुलाब के फूल के बदले में नई आशा-उमग का संचार कर उसे उत्साहित कर देता तो सभी को सकारात्मक तरीके से ख़ुशी का सन्देश देने वाले इस ‘रोज डे’ की शुभकामनायें... :) :) :) !!!
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०७ फरवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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