शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सुर-४०२ : "राष्ट्र के कवि प्रदीप... जिसने जलाया स्वतंत्रता का दीप...!!!"

दोस्तों...

___//\\___

सरल मन
सहज जीवन
संवेदनाओ से भरा
हृदय का चमन
जेहन में बसा रहता सदा
सबसे प्यारा वतन         
यही कामना कि सदा रहे
देश में चैन ओ अमन
ऐसे देशभक्त समर्पित
‘कवि प्रदीप’ को
करते हम मन से नमन
-------------------------------●●●

६ फ़रवरी, १९१५ को ‘मध्य प्रदेश’ में महाकाल की नगरी ‘उज्जैन’ में एक ब्राह्मण परिवार के यहाँ माँ सरस्वती के मानस पुत्र 'रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी' का जनम हुआ जिसे हम सभी लोग ‘कवि प्रदीप’ के नाम से बेहतर तरीके से जानते हैं क्योंकि ‘कविता’ तो मानो उनके रोम-रोम में बसती थी तो ‘शब्द’ उनकी रगों में दौड़ते-फिरते थे और ‘विचार’ जेहन के गलियारों में चहलकदमी करते रहते थे और जब तपस्या में लीन साधक की तरह अपनी जन्मभूमि व मातृभूमि के प्रति आगाध निष्ठा से भरी ‘कलम’ कागज़ पर चलती तो फिर देशप्रेम से भरा ऐसा ओजपूर्ण सृजन होता कि सुनने वाले के भीतर अपार देशभक्ति संचार होता और मस्तक स्वतः ही गर्व से ऊंचा हो जाता तभी तो आज तलक भी उनका लिखा हर गीत जिसमें मिटटी की सौंधी महक, अपनेपन का सलोना अहसास, वतन का असीम प्रेम भरा हैं ‘राष्ट्रगीत’ की तरह बजाया और सुना जाता जो सुनने वाले को अपनी जन्मभूमि के प्रति कर्तव्य की भावना से भर उसके मन में उसके लिये कुछ करने का भाव पैदा कर देता इतना जीवंत लेखन हो जब किसी कवि का तो उसे महज़ साहित्यकार या लेखक कहकर उसका संपूर्ण आकलन नहीं किया जा सकता कि उनके लिखे  गीतों ने उस दौर में जबकि देश अंग्रेज सरकार का गुलाम था स्वतंत्रता आंदोलन में जन-जन के अंतर में क्रांति की मशाल जलाने तीली का काम किया कि उनके शब्दों में तेज आग थी जो हर किसी को सकारात्मक ऊर्जा से भर वतन के वास्ते अपनी जान तक निसार करने प्रेरित करती थी यही वजह कि जब उन्होंने १९४३ में ‘किस्मत’ फिल्म के लिये ये गीत लिखा---

“आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है,
दूर हटो ए दुनियां वालों हिंदुस्तान हमारा है...”

तो वीर रस से भरे इस देश राग़ ने हर एक क्रांतिकारी को आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने का जोश दिलाया जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से फिरंगियों को ही निशाना बनाया गया था जिसके लिये सरकार की तरफ से उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट भी जारी किया जो ये बताता कि जहाँ एक तरफ कुछ देशभक्त तन-मन से राष्ट्र की सेवा कर रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ कलमकार अपनी कलम की ताकत से वहीँ काम कर रहे थे जिससे आंदोलनकारियों के हताश मन को अपनी खोयी हुई शक्ति प्राप्त होती और इस इस गीत की लोकप्रियता तो उस वक्त चरम पर थी कि सिनेमा घरों में दर्शक खड़े होकर बार-बार सिनेमा मालिकों से इसे दोहराने की मांग करते जिसकी वजह से इसे फिल्म खत्म करने के बाद भी दिखाया जाने लगा और यही वो फिल्म हैं जिसने ‘कोलकाता’ की एक टाकिज में लगातार चार साल तक चलने का कीर्तिमान स्थापित किया इसी तरह इसके पूर्व १९४० में वे ‘बंधन’ फिल्म के लिये लिखे अपने गीत ‘चल चल रे नौजवान...’ से इस तरह का प्रभाव पैदा कर चुके थे जिसने न जाने कितने देशभक्तों के अंदर आगे बढ़ने हेतु साहस का संचार किया यहाँ तक कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ‘श्री जवाहर लाल नेहरुजी’ ने भी बताया कि उनकी बेटी ‘इंदु’ जो बाद में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी भी अपने बाल्यकाल में एक ‘वानर सेना’ बनाई जिसमें वे अपने साथियों के साथ यही गीत गाती थी और उस समय तो ये लगभग ‘राष्ट्रगीत’ की तरह गली-गली गूंजता था

जब-जब भी देश में प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न हुई ‘कवि प्रदीप’ की कलम ने उतने ही अनुकूल गीतों की रचना की कुछ ऐसा ही माहौल था साठ के दशके में जब ‘चीन’ द्वारा किये गये आक्रमण में मिली पराजय से देश में निराशाजनक वातावरण था तो ऐसे कठिन वक्त में फिर उनकी कलम ने जादू रचा और 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी...' का सृजन किया जिसने उन को राष्ट्रकविकी उपाधि का हकदार बना दिया यहाँ तक कि उन्होंने तो इस गीत से मिलने वाली ‘रॉयल्टी’ की रकम को शहीद सैनिकों की विधवा पत्नियों को देने का निश्चय किया जो उनकी अपने हमवतन लोगों के प्रति उदारता वृति को दर्शाता हैं और इस गीत का असर तो अब भी किसी के दिलों-दिमाग से कम होता दिखाई नहीं देता और हर राष्ट्रिय पर्व पर इसे बजाया जाता उनकी प्रभावशाली कलम का लोहा तो उस समय के हर वरिष्ठ कवियों ने माना और महाकवि ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी’ जिन्होंने उनको ‘प्रदीप’ नाम दिया था ने तो १९३८ में ही उनके बारे में अपने मनोभाव यूँ अभिव्यक्त कर उनकी उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर दिया था---

"आज जितने कवियों का प्रकाश हिन्दी जगत में फैला हुआ है, उनमें 'प्रदीप' का अत्यंत उज्ज्वल और स्निग्ध है हिन्दी के हृदय से प्रदीप की दीपक रागिनी कोयल और पपीहे के स्वर को भी परास्त कर चुकी है इधर 3-4 साल से अनेक कवि सम्मेलन प्रदीप की रचना और रागिनी से उद्भासित हो चुके हैं।"

उन्होंने विशुद्ध हिंदी गीत, कविताओं के साथ फ़िल्मी गानों का भी सृजन किया लेकिन कभी किसी भी हाल में उनकी कलम से कोई अश्लील या हल्का गान नहीं निकला और वे केवल एक कवि ही नहीं बल्कि गीतकार, संगीतकार होने के साथ-साथ उम्दा गायक भी थे और उनके गाये सभी गीतों ने अपनी विशिष्ट गायन शैली के कारण जनमानस में अपनी गहरी  पैठ बनाई फिर चाहे वो “साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...” हो या फिर “हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के...” या फिर “आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की इस मिटटी से तिलक करो ये धरती हैं बलिदान की...” या “चल अकेला चल अकेला...” या फिर “कितना बदल गया इंसान...” या “पिंजरे के पंछी रे...” या “इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा...” गीतों की फेहरिश्त तो काफी लंबी अतः उसे विराम देते हुये ‘राष्ट्रकवि प्रदीप’ को आज उनके जन्मदिवस पर ये शब्दांजलि अर्पित करती हूँ... :) :) :) !!!
__________________________________________________
०६ फरवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
●--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: