बुधवार, 15 मई 2019

सुर-२०१९-१३५ : #पहले_केवल_सयुंक्त_मिटे #अब_एकल_परिवार_भी_खो_रहे




कभी पचास-पचास सदस्यों से भरे-पूरे परिवार होते थे जिनमें माता-पिता ही नहीं दादा-दादी, ताऊ-ताईजी, कई चाचा-चाची और उनके बच्चे सब मिलकर एक-साथ रहते थे जिससे कि न केवल रिश्तों की अहमियत पता चलती बल्कि, सबके संग रहने से घर-खर्च व कामों में भी सांझेदारी होती फिर इतने सारे बच्चे कब एक साथ पलते-बढ़ते तो उनमें आत्मीयता व प्रेम भी बरकरार रहता एवं एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखने को भी मिलता जिसके लिये आज बच्चों की तमाम तरह की क्लासेस में भेजना पड़ता और जब तक वो वापस न आ जाये धड़कते दिल से इंतजार में पलकें बिछाये बैठना पड़ता यही नहीं आज के आधुनिक परिवेश की तरह जहाँ एकल परिवार में एक बच्चा होने से खेलने-कूदने के लिये भी अन्य बच्चों की राह तकनी पड़ती या किसी तरह की मदद चाहिये तो तरसना पड़ता पर, सयुंक्त परिवार में सब तरह संगी-साथी घर में ही मौजूद रहते तो बड़ी आसानी से हर मुश्किल का समाधान कर लिया जाता और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे से किसी भी तरह के सामान चाहे गहने हो या कपड़े या फिर कोई भी वस्तु लेन-देन में भी कोई संकोच नहीं होता क्योंकि, सबके मध्य परस्पर स्नेह का बंधन होता जो बचपन से उनमें शेयरिंग की आदत को पैदा करता भले, कभी कुछ मन-मुटाव हो जाते या पल भर को मन में खटास पड़ जाती फिर भी रक्त संबंधों की कशिश का रसायन डोर को टूटने नहीं देता जो अब सिर्फ अतीत की बातें रह गयी है

क्योंकि, गाँव हो या शहर सयुंक्त परिवारों का चलन कम होते-होते धीरे-धीरे समाप्ति की तरफ बढ़ता जा रहा जिसकी जगह न्यूक्लिअर फैमिलीज़ ने ले ली जहाँ केवल हम दो हमारे दो वाला परिवेश होता पर, अत्यंत दुःख की बात की अब तो ये भी खतरे में पड़ता जा रहा क्योंकि, लोगों को अब बच्चे पालना ही नहीं पैदा करना भी अपनी लाइफ में हस्तक्षेप लगता तो पहले दो से एक पर आये और अब वो भी नहीं करना चाहते क्योंकि, अपनी ज़िन्दगी अपने लिये जीना चाहते या अपनी लाइफ में इस कदर व्यस्त रहते कि कब वो समय निकल जाता एहसास ही नहीं होता जो कि आने वाले समय के लिये परिवार नामक संस्था के लिये बेहद खतरनाक है हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता को मानना पड़ेगा जो पहले तो हमको बकवास लगती लेकिन, समय आने पर समझ में आती कि किस मानसिकता व दृष्टिकोण के साथ उन्होंने विवाह व परिवार बढ़ाने की उम्र का निर्धारण किया जो उस वक़्त तो बुरा लगता लेकिन, बाद में रिएलाइज करना पड़ता कि वो कितने सही थे जिन्होंने अपने लम्बे अनुभवों के बाद ये जान लिया कि यदि समय से शादी व बच्चे हो तो भले, युवावस्था में ये जिम्मेदारी बोझ या अपरिपक्वता लगे लेकिन, आगे चलकर उस उम्र में जब हम समर्थ नहीं होते उसके पूर्व ही उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते तब जाकर जानते कि अच्छा हुआ जो उस वक़्त वो काम कर लिया अब इस उम्र में ये सब करना बोझिल महसूस होता

इसका ताजा-तरीन उदाहरण टी.वी. धारावाहिक एफ.आई.आर. में एस.आई.‘चंद्रमुखी चौटाला’ का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री ‘कविता कौशिक’ का ये कथन जो उपरोक्त उक्ति का समर्थन करता है और जिसने ये लिखने की प्रेरणा भी दी...

38 साल की कविता ने इंटरव्यू में कहा, “मैं बच्चे के साथ अन्याय नहीं करना चाहती अगर, मैंने 40 की उम्र तक बच्चा पैदा किया तो जब वह 20 साल का होगा मैं और मेरे पति बूढ़े हो चुके होंगे और मैं नहीं चाहती कि 20 साल की उम्र में मेरे बच्चे बूढ़े मां-बाप की सेवा में अपना समय गंवाएं। शायद, हमारे अंदर औरों की तरह पेरेंट्स बनने की चाहत भी नहीं है और हम दुनिया को एक हल्की जगह बनाना चाहते हैं वैसे भी इस भीड़भाड़ वाले शहर मुंबई में बच्चे को पैदा कर उसे संघर्ष के लिए नहीं छोड़ सकते” ।

उनके इस कथन को पढ़ें तो इसके अनेक पहलू नजर आयेंगे-

पहला – आज के युवा जब पढ़-लिखकर नौकरी पाकर अपनी जिंदगी को एन्जॉय करना शुरू करते तो उन्हें वो सब इतना अच्छा लगता कि वे ये भूल जाते कि हमेशा सब कुछ ऐसा ही नहीं रहने वाला इसलिये कुछ समय खुद को देकर फिर भविष्य के बारे में भी सोचना जरूरी है और ये सब आजकल बेहद कॉमन हो गया जिसने विवाह तक को अनावश्यक बना दिया है            

दूसरा – माय लाइफ, माय चॉइस के मन्त्र ने सब पर ऐसा असर किया कि वो अपने से आगे देखना ही नहीं चाहता इसलिये विवाह जैसे रिश्ते में निभ नहीं पाता क्योंकि, अपनी आत्मनिर्भरता व आर्थिक स्वतंत्रता की वजह से उसे रिश्ता निभाने समझौते और सहन करने जैसी बातें तुच्छ लगती तो विवाह क्या लिव-इन जैसे उनके पसंद के फैसले भी उनके ही झूठे अहम की भेंट चढ़ जाते और ऐसे में कोई समझाये भी तो जहर-सा लगता है

तीसरा – जैसे ही अपने लाइफ की बागडोर अपने हाथ में आती वे जी भरकर हर एक पल को जी लेना चाहते जिसमें कुछ गलत नहीं लेकिन, हर एक चीज़ का एक समय होता जो उस वक़्त न हो तो उसके मायने नहीं रह जाते इसलिये प्रकृति में भी सारे बदलाव समयानुकूल होते और आजकल जो विपरीत लक्षण दिखाई भी दे रहे तो वो हमारी ही गलतियों का परिणाम है यदि हमने उसे समझ लिया तो जीवन को समझना भी कठिन नहीं होगा आखिर, जीवन भी कुदरत से ही संचालित होता जिसे हम अप्राकृतिक बना रहे तो फिर भुगतने भी तैयार रहना पड़ेगा अतः बेहतर होगा कि देर होने से पहले ही समझ ले नहीं तो हमारे साथ ही सब खत्म हो जाना है

आज भले ये एक मामूली-सी बात या पर्सनल मेटर लग रहा मगर, जब कल इस तरह के प्रकरणों का प्रतिशत बढेगा तब तक देर हो चुकी होगी और यदि इनके माता-पिता भी यही सोचते तो ये किस तरह आते और अभी जब दुनिया में संघर्ष दिख रहा तो आगे जटिलताएं अधिक बढ़ेगी तो ऐसे में हथियार डालना नहीं बल्कि, उसका समाधान निकालना अधिक जरूरी है तो जिस वजह से ये स्थितियां उत्पन्न हो रही उनका विश्लेषण कर कुछ ऐसा हल निकाले कि बच्चों की किलकारी बची रहे... तभी ये ‘विश्व परिवार दिवस’ भी सार्थक होगा । 
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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
मई १५, २०१९

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