गुरुवार, 9 मई 2019

सुर-२०१९-१२९ : #धर्म_अध्यात्म_की_ध्वजा_लहराई #आदि_शंकराचार्य_ने_नव_जोत_जगाई




किसी भी राष्ट्र की उन्नति और विस्तार तभी होता जब उसका चहुँमुखी विकास होता और हर कोई अपने हिस्से की जिम्मेदारी समझ अपना कर्तव्य निभाता कोई धर्म रक्षार्थ तो कोई समाज हितार्थ और कोई देश की सुरक्षा हेतु अपना योगदान देता जिससे तिरंगा ही नहीं धर्म ध्वजा का मान-सम्मान भी बढ़ता है । किसी भी देश की केवल सरहद ही नहीं सभ्यता-संस्कृति का भी सरंक्षण आवश्यक क्योंकि, एक व्यक्ति को तो दूसरा देश को सशक्त बनाता इसलिये यदि एक सिपाही बन्दूक लेकर सीमा पर सीना तानकर दुश्मनों को भीतर प्रवेश करने से रोकता तो उसी तरह एक ज्ञानी-मर्मज्ञ भी अपने सुंदर उपदेश व प्रेरक वचनों से देश की आंतरिक स्थिति को बनाए रखने का काम करता है । दोनों के कुशल संयोजन से ही वो देश प्रगति की राह में तीव्र गति से न केवल आगे बढ़ता है बल्कि, वहां के नागरिकों की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक रूप से उत्तरोत्तर वृद्धि होती जिससे कभी उनका नैतिक पतन नहीं होता और जहां कहीं जरा भी इनके बीच तालमेल बिगड़ा या इनका आपसी संतुलन गड़बड़ाया अधर्म का पलड़ा भारी हो जाता है ।

कुछ ऐसी ही विषम परिस्थिति उत्पन्न हुई जब ‘द्वापर युग’ की समाप्ति के पश्चात ‘कलिकाल' का आरंभ हुआ तब तक सृष्टि जो अब तक चार चरणों में खड़ी थी उसके तीन चरण विलुप्त हो चुके थे और समस्त ब्रम्हांड की आधारशिला महज एक पांव पर टिक गई और आगे किस तरह से ‘धर्म’ को बचाया जाये ताकि ‘अधर्म’ की जीत न होने पाये एक जटिल प्रश्न सुरसा की तरह मुंह खोल सारे जगत को लीलने मुंह खोले सामने खड़ा था । ऐसे समय में ‘केरल’ की पावन भूमि पर 788 ई. के दौरान ‘वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि’ को कालपी अथवा 'काषल' नामक ग्राम में ‘शिवगुरु’ और ‘सुभद्रा’ के घर एक पुत्र का जन्म हुआ और चूंकि अनेकों दिन तक उन्होंने सपत्नीक शिव को कठिन आराधना की तब बहुत लंबी तपस्या उपरांत भगवान शिव ने उनको सन्तान का मुंह दिखाया तो उसका नाम उन्होंने भगवान् भोलेनाथ के नाम पर ‘शंकर’ ही रख दिया था । उस समय उन्हें भी किंचित ये अहसास न होगा कि वो उसी जगतपालक परमपिता परमेश्वर शिव का एक अंश है और इस संसार में धर्म की पताका लहराने ही मानव रूप धरकर आया है उनके लिये तो वो सिर्फ उनका पुत्र था पर, अपनी नियति से कौन बचा तो वे भी उसी पथ पर आगे बढ़े जिस पर चलकर पुनः धर्म की स्थापना कर उसका खोया गौरव उसे वापस लौटाना था ये लक्ष्य जितना दुष्कर था उसका संधान भी उतना ही कठिन लेकिन जब आपका उद्देश्य लोकहित में होता तो समस्त कुदरत भी आपका साथ देती है ।

उनके साथ भी घटनाक्रम कुछ इस तरह से घटित हुआ कि जो संकल्प कभी असम्भव प्रतीत हो रहा था वो स्वतः ही देव प्रेरणा से होता चला गया और जिस मां ने उनको खुद से दूर न होने व सन्यास मार्ग पर न चलने देने की हठ ठान रखी थी वे भी खुशी-खुशी तैयार जो गयी क्योंकि, संयोग ही कुछ ऐसा बन पड़ा एक दिन तालाब में स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने उनका पांव पकड़ लिया तब उन्होंने मां से विनती की यदि वे सन्यास की आज्ञा दे तभी इस काल से उनकी मुक्ति सम्भव है । इसके बाद उन्होंने मात्र 8 साल की बाल अवस्था में ही सन्यास धारण कर उस मार्ग का अनुगमन किया जिसका निर्माण उनके जन्म के पूर्व ही हो गया था और वहां की मिट्टी-पत्थर भी उनकी राह तक रहे थे तो ये सबसे पहले ‘काशी’ गये जहां तपोबल से ज्ञान अर्जित किया उसके बाद ‘दरभंगा’ प्रवास में ‘मण्डन मिश्र’ से किया गया उनका शास्त्रार्थ विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि, उसके माध्यम से उन्होंने जीवन की रहस्यमयी उलझनों को सुलझाकर उनका सहज जवाब दिया और परकाया प्रवेश कर उस गुत्थी को भी हल कर दिया जिसे अब तक एक अबूझ पहेली समझा जाता था ।

समस्त भारतवर्ष का भ्रमण कर सनातन धर्म की ध्वजा को फिर से लहरा दिया और जिन वेद, पुराण, उपनिषद को अप्रासंगिक व अनुपयोगी समझकर उनका ह्रास हो रहा था उनकी समय व काल अनुसार व्याखया की जिससे कि दुरूह विषय भी आसान लगने लगे और अपनी टीका व व्याख्या से उन्होंने समस्त धर्मग्रंथो को फिर से उनकी जगह दिलवाई और समाज व धर्म में व्याप्त कुरीतियों को भी समाप्त किया एक तरह से कह सकते कि जिस तरह हम अपने घर का रेनोवेशन कर उसे नई साज-सज्जा कर पुनः जीवन देते उसी तरह उन्होंने वैदिक धर्म का रेनोवेशन किया था । यही नहीं इस परंपरा को आगे ले जाने व युगों-युगों तक कायम रखने उन्होंने वह अद्भुत कारनामा किया जो पूर्व में किसी के मस्तिष्क में भी न आया होगा कि देश के चारों कोनों में चार पीठ बनाये जाये जो धर्म-अध्यात्म की गंगा को अनवरत प्रवाहमान रखे तो इस विचारधारा के साथ उन्होंने चार धार्मिक मठों की स्थापना की थी जिसमें दक्षिण (कर्नाटक) मैसूर में शृंगेरी ‘शंकराचार्यपीठ’, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में ‘गोवर्धनपीठ’, पश्चिम (गुजरात) द्वारिका में ‘शारदामठ’ तथा बद्रीनाथ (उत्तराखंड) में ‘ज्योतिषपीठ’ जो सनातन धर्म के चार वेदों से संबंधित ऐसी मान्यता है कि ‘ऋग्वेद’ से गोवर्धन पुरी मठ (जगन्नाथ पुरी), यजुर्वेद से श्रंगेरी (रामेश्वरम्), सामवेद से शारदा मठ (द्वारिका) और अथर्ववेद से संबध्द ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) बना तथा ये आज भी चारों दिशाओं में उनका प्रतिनिधित्व कर रहे है ।

जीवन में धर्म बेहद जरूरी इसलिए जब भी उसका पतन होता तो उसके उद्धार के लिये भगवान को मानवीय अवतार लेकर आना पड़ता और हम है कि फिर उससे विमुख हो रहे जबकि, सब कुछ सरलता से उपलब्ध ऐसे में आज ‘आदि शंकराचार्य’ की जयंती हमें ये स्मरण कराती कि सिर्फ 32 साल की उम्र में इतने सारे काम कर के वे इस जगत से चले गये और हम है कि जीवन के अंतिम क्षण तक नहीं जान पाते कि आखिर, हमारा जन्म क्यों हुआ है ?

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
मई ०९, २०१९

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