इतिहास की
किताब में दर्ज कुछ नाम उसके पन्नों में लिखे-लिखे ही धुंधला जाते तो कुछ चित्र
स्मृति की दीवारों में भी खोने से लगते तभी कोई एक दिन आता जो उस तहरीर में पड़ी
धूल को हटा उन्हें पुनः सुनहरा कर देता और तस्वीर की हल्की पड़ रही रेखाओं को भी गहरा
कर देता क्योंकि, ये नाम किसी स्याही से नहीं बल्कि, उन बलिदानियों ने अपने रक्त से
अंकित किये है । अपना सर्वस्व अर्पण करने के बाद जनमानस और उसके
हृदयपटल में वो स्थान पाया है जिस पाने की ख्वाहिश तो हर कोई करता लेकिन, वो साहस,
वो हिम्मत नहीं जुटा पाता कि यदि वक़्त पड़े तो राष्ट्र की खातिर अपनी जान लुटाने
में भी एक पल न हिचके बल्कि, उन अवसरों की प्रतीक्षा में प्रतिपल आतुर रहे जब मौत
को सामने देखने पर भी कदम पीछे हटने की बजाय चूमकर उसे गले लगा ले और जिसने ये
किया उसे विस्मृत करना कृतध्नता ही कहलायेगी जो वतन के प्रति भी बेवफ़ाई है ।
आज ऐसे ही
एक क्रांतिकारी और हुतात्मा का बलिदान दिवस है जिसने देश की खातिर जान की बाजी लगा
दी और ये ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो अकेले नहीं वरन अपने भाइयों के साथ जंग की
लड़ाई में शामिल हुये और तीनों भाइयों ने अपनी जान की परवाह न करते हुये ऐसे काम
किये जिनके द्वारा वे गिलहरी सम ही सही स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान दे सके
और इसके लिये यदि भारत माता के चरणों में अपना शीश भी चढ़ाना पड़े तो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी
गर्दन आगे कर दे जिसे अपने कर्मों से उन्होंने सत्य साबित भी किया । ये तीन भाई
इतिहास में ‘चापेकर बन्धुओं’ के नाम से जाने जाते है जो कहने को तीन अलग-अलग शरीर
थे मगर, उनके भीतर बसी जान व अपने वतन के प्रति सोच एक ही थी इसलिये तो 'दामोदर हरी चापेकर' (1869-1898 ई.), 'बालकृष्ण चापेकर' (1873-1899 ई.) और सबसे छोटे 'वासुदेव चापेकर'
(1880-1899 ई.) ने महज 19 साल की अल्पायु में राष्ट्र यज्ञ में अपने
प्राणों की आहुति देकर अपने नाम अमर कर दिये जिन्हें भूला पाना नामुमकिन है ।
किसी गुलाम
देश में गुलाम होकर जन्म लेना मजबूरी या नियति हो सकती है लेकिन, उन विपरीत हालातों
में आज़ाद होने का प्रयास नहीं करना या उन कठिन परिस्थितियों को दोष देते हुये तिल-तिलकर
मर जाना जरुर कायरता है और वीर कभी ऐसे मौत मरना पसंद नहीं करते वे जो भी संभव
होता प्रयास करते फिर उसके लिये भले ही उन्हें मरना ही क्यों न पड़े मगर, ये अफ़सोस
नहीं होता बल्कि, ये संतोष रहता कि कम से कम पांव में बंधी बेड़ियाँ तोड़ने को हाथ
तो उठाया था । ये तीनों भाई भी देश के उस कालखंड में जन्में जब फिरंगियों ने उस पर
अपना कब्जा जमाया हुआ था फिर भी उन्होंने जब देश में परतंत्रता भरा माहौल देखा तो
उसमें रहकर घुट-घुटकर जीने की जगह ‘बाल गंगाधर तिलक’ की प्रेरणा से आज़ादी की लड़ाई
लड़ने का फैसला किया और उनमें से दो भाई ‘बालकृष्ण’ तथा ‘दामोदर चापेकर’ ने जून, 1897 ई. में महारानी
विक्टोरिया के 'हीरक जयन्ती' समारोह के
अवसर पर दो ब्रिटिश अधिकारियों ‘रैण्ड’ और ‘ले. एम्हर्स्ट’ की हत्या कर दी तो तीसरे
भाई ‘वासुदेव चापेकर’ ने अपने दोनों भाइयों ‘दामोदर’ और ‘बालकृष्ण’ को गिरफ़्तार
करवाने वाले ‘गणेश शंकर द्रविड़’ की हत्या कर दी जिसके लिये तीनों को फांसी की सजा
दी गयी और सबसे छोटे भाई ‘वासुदेव चापेकर’ को आज ही के दिन 8 मई, 1899 ई. फाँसी दी गयी थी ।
आज उनके शहादत
दिवस पर कोटि-कोटि प्रणाम... जय हिन्द... वंदे मातरम... 🇮🇳️ 🇮🇳️ 🇮🇳️ !!!
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© ® सुश्री इंदु
सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
मई ०८, २०१९
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