गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-४६ : #कलम_से_गाया_सदैव_देशभक्ति_राग़ _पहली_महिला_सत्याग्रही_सुभद्रा_कुमारी_चौहान



बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

अपनी इस एकमात्र कविता से ही उन्होंने मानो कमाल कर दिया एक स्त्री होकर अपने जैसी ही अनगिनत महिलाओं को जाग्रत कर जंगे आज़ादी में हिस्सा बनने के लिये प्रेरित करने उन्हें एक ऐसे आदर्श की आवश्यकता थी जिससे स्त्रियाँ खुद को जोड़ सके और मैदान में आकर फिरंगियों को जल्द-से-जल्द देश से भागने पर मजबूर कर दे तो अपने मन में छिपी देशभक्ति की भावना को ‘झाँसी की रानी’ के माध्यम से इस तरह ज़ाहिर किया कि उस दौर में सभी के ओंठों पर यही तराना था । हर एक को ये कविता याद जुबानी थी और इसने अनेक युवाओं को देशप्रेम से ओत-प्रोत कर उनमें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की इच्छा उत्पन्न की जिसे देखकर अंग्रेजों ने इसे बैन कर दिया लेकिन, तब तक ये सभी लोगों को कंठस्थ हो चुकी थी तो उसका इतना प्रभाव नहीं पड़ा मगर, इसे लिखने वाली महज़ एक कवयित्री नहीं वरन देश की प्रथम महिला सत्याग्रही और राष्ट्रभक्त भी थी जिन्होंने सिर्फ अपनी कलम के माध्यम से ही नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया और जेल भी गयी याने कि आज की अधिकांश फेमिनाओं की तरह केवल घर में बैठकर कागज काले नहीं किये न ही दूसरों को ही कोरे उपदेश देती रही कि घर-द्वार छोडकर देशसेवा करो खुद आगे आकर ये कार्य किया जबकि वे स्वयं एक पत्नी, बहु और माँ भी थी । मन में मगर उनके अपार जोश और दश के प्रति अगाध श्रद्धा भरी थी तो फिर कोई भी कर्तव्य या बाधा उनका मार्ग न रोक पाई और न ही किसी विषम परिस्थिति ने ही उनको निराश किया ऐसा उनके लेखन से भी प्रतीत होता हैं...

जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आयी।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आयी।।

उनका अपना हृदय इतना कोमल व संवेदनशील था कि दूसरों की पीड़ा से वे भाव-विह्वल हो जाया करती तो जब उन्होंने देश को पराधीन व देश के लोगों को गुलामों की तरह आशय देखा तो अपने आपको घर की चारदीवारी या गृहस्थी के सुख में न रोक सकी और न ही जीवन का मोह किया...

मेरे भोले मूर्ख हृदय ने
कभी न इस पर किया विचार।
विधि ने लिखी भाल पर मेरे
सुख की घड़ियाँ दो ही चार

१६ अगस्त १९०४ का वो दिन नागपंचमी का था जब इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में 'ठाकुर रामनाथ सिंह' के घर उनका जन्म हुआ तो उन्हें भी ये ज्ञात नहीं था कि पुत्री के रूप में साक्षात माँ शारदे आशीष ही फलीभूत हुआ हैं तभी तो बाल्यकाल से ही उनके भीतर काव्य सृजन की अद्भुत प्रतिभा थी जिसका साक्षात्कार सिर्फ ९ साल की नाजुक अवस्था में ही हो गया जब १९१३ उनकी पहली कविता जो उन्होंने नीम के पेड़ की महिमा के बखान स्वरुप लिखी थी प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में 'सुभद्राकुँवरि' के नाम से छपी जिसने उनकी लेखन क्षमता का परिचय साहित्य जगत को दिया ।
  
सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥

इन पंक्तियों से ये ज़ाहिर था कि वे प्रकृति से गहरे जुडी हुई हैं और उनका मन बेहद करुण व कोमल भावनाओं से भरा हुआ हैं जो जड़-चेतन सबके भीतर के मनोभावों को अनुभूत कर अपनी कलम से उन्हें अभिव्यक्त करता हैं । निम्न वर्ग की परेशानियां हो या कि गरीब लोगों के साथ भेदभाव वे सब पर नजर रखती थी और उनके लिये सिर्फ कलम से नहीं कार्यरूप में भी आवाज़ उठाती थी जिससे कि उनके जीवन का स्तर सुधरे उनको भी सम्मान मिले तो ऐसे ही किसी दुखियारे की पीड़ा को उन्होंने कविता में व्यक्त किया...

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

उन्होंने केवल अपने विचारों नहीं स्वभाव से भी दीन-दुखियों की हमदर्द बनकर उनका साथ दिया और जब भी उनको जरूरत पड़ी उनके साथ खड़ी हुई यहाँ तक कि महात्मा गाँधीकी मृत्यु के उपरांत जब उनकी अस्थियाँ लाई जा रही थीं तो बहुत भीड़ उमड़ी थी। तब सुभद्रा कुमारी भी बहुत सारे साधारण लोगों के साथ वहाँ पहुँची थीं लेकिन वहाँ पहुँचे वी. आई. पी. लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सामान्य जनता की एंट्री बंद थी। सुभद्रा कुमारी को जब अकेले ही अन्दर आने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा - "मैं तो आऊँगी और मेरे साथ ये लोग भी आएँगे क्योंकि जब देश में आजादी की लड़ाई छिड़ी थी, तब यही लोग बापू के आदेश पर लाठियाँ खाते थे, और आप अपने अँग्रेज आकाओं के आदेश से इन पर लाठियाँ चलाते थे, और आज आप बापू की भस्म के रक्षक बन के खड़े हैं और ये लोग उसके पास नहीं जा सकते।" उन की बात सुनकर पुलिस अधिकारी उन सबके अन्दर जाने की इजाजत दी थी ।

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
युद्ध में वे निर्भय मर मिटें॥

सन् १९२३ की एक महत्वपूर्ण घटना हैं कि जिस तरह आज देश में आज़ादी के बाद भी ‘तिरंगा यात्रा’ विवाद का विषय बन गई यहाँ तक कि एक निर्दोष की जान भी चली गयी ऐसा ही माहौल तब भी था जब हम ब्रितानी सरकार के शिकंजे में थे तब स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना झंडा ‘म्युनिसिपल कमिटी’ पर फहराया तो अँग्रेजों ने उसे उतार फैंका और कहा - "दिस इज पब्लिक बिल्डिंग यू कैन नाट पुट योर पार्टीज फ्लैग ऑन टॉप ऑफ़ दिस बिल्डिंग रिमूव दैट ब्लडी फ्लैग" अपने झंडे का ये अपमान देशभक्तों को नागवार गुज़रा तो ऐसे में अपने इस झंडे के प्रति विदेशियों के मन में आदर पैदा करने के लिए ही यह ‘झंडा सत्याग्रह’ की शुरुआत की गयी तब अनेक सिनानियों के साथ ‘सुभद्रा कुमारी’ भी इस सत्याग्रह में शामिल हुई और जेल भी गई जिसकी वजह से उन्हें देश की प्रथम महिला सत्याग्रही होने का गौरव भी हासिल हुआ ।  

बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से

अपने राष्ट्र के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में केवल ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ ही नहीं उनके पति  'ठाकुर लक्ष्मण सिंह' भी बराबर के सहयोगी रहे यही वजह कि उस माहौल में वे इतना कुछ कर सकी और स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ गृहस्थी की गाड़ी भी चलाती रही यहाँ तक कि उस समय प्रचलित पुरातन रूढ़ियों से चली आ रही अनगिनत प्रथाओं को बदलने में भी उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की चाहे फिर वो समाज के दबे कुचले लोगों को केंद्र में हो या पर्दा प्रथा या महिला साक्षरता या फिर विधवा विवाह या बाल विवाह रोकना हो हर तरह की कुरीति के विरुद्ध उन्होंने कदम बढ़ाने में देर नहीं की और उनका सबसे साहसिक कदम तो वो था जब उन्होंने अपनी बेटी के विवाह में ‘कन्या दान’ करने से मना कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि ‘बेटी’ कोई दान की वस्तु नहीं इस तरह उन्होंने बेटी सरंक्षण के लिये भी अपनी कलम से प्रयास किये...

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है
मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे
मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान

आज लोग बेटियों को बचाने और महिला सशक्तिकरण की बात कर रहे लेकिन उन्होंने तो अपने संपूर्ण जीवन से इन शब्दों को अर्थ दिये और आज के दिन उनकी मृत्यु भी अपने मन  की अत्यंत कोमलता के कारण ही हुई कि १५ फरवरी १९४८ को दोपहर के समय वे नागपुर से जबलपुर के वापस लौट रहीं थीं और उनका पुत्र कार चला रहा था अचानक उन्होंने देखा कि बीच सड़क पर तीन-चार मुर्गी के बच्चे आ गये जिसे बचाने के चक्कर में कार एक पेड़ से टकरा गयी और इस तरह अंत समय तक वे परहित ही कार्य करती रही और अपने पीछे अपना साहित्य और अपने कर्मों की अमिट छाप छोड़ गयी

मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना
उत्साह, उमंग निरंतर, रहते मेरे जीवन में
उल्लास विजय का हँसता मेरे मतवाले मन में
सुख-भरे सुनले बादल, रहते हैं मुझको घेरे
विश्वास, प्रेम, साहस हैं जीवन के साथी मेरे।
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१५ फरवरी २०१८

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