बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

सुर-२०१८-४५ : #प्रेमोत्सव_की_समापन_तिथि_वैलेंटाइन_डे_बनाम_महाशिवरात्रि


प्रेम, प्यार, इश्क़, चाहत, अनुराग, मुहब्बत बहुत नाम हैं इसके कोई अधूरा तो कोई पूरा चाहे जिस नाम से पुकारो इसकी तासीर बदलती नहीं जिस तरह बर्फ को अंगार कहने से वो हाथों को जलाता नहीं उसी प्रकार प्यार को ज़हर कह देने पर वो मारता नहीं फिर भी हमारे समाज में जिस तरह से इसको प्रतिबंधित किया जाता वो विचारणीय हैं जबकि, समस्त ब्रम्हांड और कुदरत पर नजर डाले तो सर्वत्र प्रेम ही बिखरा नजर आता चाहे वो कलियों और भँवरों के बीच हो या नदी और सागर या फिर दिया-बाती, पतंग-डोरी, सूरज-किरण, चाँद-चांदनी जिनको प्रेम प्रतीकों के रूप में इस्तेमाल किया जाता सब एक अदृश्य बंधन से एक-दूसरे से इस तरह जुड़े जिनको पृथक कर पाना संभव नहीं हैं । इसके बावजूद भी हर कोई चाहता कि वो अपने प्यार को एक अलग मिसाल दे तो हीर-रांझा, लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, ससी-पुन्नु, सोहनी-महिवाल, मिर्ज़ा-साहिबां की तरह अपने इश्क़ को अमर बनाने का प्रयास करता मगर, पाता कि मिलन अक्सर बीच के उस जज्बात को खत्म कर देता ऐसा क्यों ? क्योंकि प्रेम में होने पर अक्सर प्रेमी-प्रेमिका काल्पनिक और ख्याली हो जाते और जमीनी हक़ीक़तों से खुद को दूर कर ख्वाबों-ख्यालों में ही जीवन बिताते या खुद को किसी कहानी के नायक-नायिका समझकर छद्म व्यवहार करते जो हकीक़त से रूबरू होने पर दोनों के बीच जिम्मेदारियों की मजबूत दीवार खड़ी कर उनको विलग कर देता हैं जो पूर्व से ही इन सच्चाइयों से वाकिफ होते और योजनाबद्ध तरीके से अपने प्यार को विस्तार देकर विवाह में बदलते उनका प्रेम शादी के बाद प्रगाढ़ और उनके बच्चे समझदार होते कि वो लापरवाही नहीं प्रेम की उष्णता से जन्मते तो अपने आप दूसरों के लिए ‘परफेक्ट कपल’, ‘मेड फ़ॉर इच अदर’ बन जाते हैं ।

प्रेम के वास्तविक अर्थ को समझना हैं तो आपको उस ‘चातक’ की पीड़ा से गुजरना होगा जो केवल स्वाति नक्षत्र में बरसने वाली जल की बूंद से अपनी प्यास बुझाता यहां उसकी प्यास ही प्यार हैं इतनी शिद्दत न हो तो प्यार महज़ हार्मोन के उतार-चढ़ाव या सुंदर चेहरों की चमक-दमक से नित होता रहता जिसे ‘आकर्षण’ या ‘क्रश’ का नाम देकर अपना दामन फिर पाक-साफ बना लेते जबकि ये प्रेम होता नहीं क्योंकि मन उसके सिवा भी भटकता रहता और जहां भटकन वहां प्यार नहीं हो सकता । ऐसे ही प्रेम की पराकाष्ठा को जानना हैं तो खुद के वज़ूद को परवाने की तरह मिटाने में भी कोई हिचक नहीं होना चाहिए जब वक़्त-ए-जरूरत ऐसी कोई स्थिति आ ही जाये सामने तो अपने आपको उस शमां रूपी इम्तिहान की आग में भस्म करने की भी ताब होनी चाहिये न कि बहार हैं तो साथ हैं पतझड़ आया तो साथ छोड़कर दूसरे का हाथ थाम लिया जैसा कि अधिकांश हीरो-हीरोइन वास्तविक जीवन में करते जो फिल्मों में अपना पात्र तो विश्वसनीयता से निभाते लेकिन असल जीवन में ‘प्रैक्टिकल’ का तमगा लगा अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आते उस पर बेशर्मी ये कि उसे प्रेम का नाम देते हैं ऐसे कोई एक-दो नहीं अनेक हैं जो युवाओं के आदर्श तो भला वे किस तरह एक चेहरे पर टिके किसी की आंखें खूबसूरत, किसी के गाल और किसी के बाल यहां तक कि जिसने फ़िल्म में कहा कि हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं और प्यार भी एक बार करते हैं उसी ने उस फिल्म में दो शादियां की और पहली शादी को प्रेम की ग़लतफ़हमी का दर्जा देकर न्यायसंगत ठहराया तो फिर उनसे प्रेरणा लेने वालों से सच्चे प्यार की उम्मीद भूसे में सुई ढूंढने जितना नामुमकिन हैं ।

इसके बाद भी लगे कि ये संभव नहीं इतना उच्च प्रतिमान लेकर प्रेम करना की क्षमता हम में नहीं तो अपने आस-पास ही नजर दौड़ा ले बहुत ऐसे जोड़े दिखाई देंगे जिन्होंने एक-दूसरे के सिवा किसी को अपने बीच में न आने दिया जिसका सबसे सशक्त प्रतीक 'अर्ध-नारीश्वर' हैं जो शिव-पार्वती के अर्धांगों का ऐसा सम्मिश्रण हैं जहां शिव-पार्वती के आधे-आधे अंश इस तरह से एक-दूजे में समा गये कि एकाकार हो गये न वहां ‘शिव’ शेष रहे न ‘पार्वती’... बचा तो सिर्फ अनुराग का साकार रूप 'अर्ध-नारीश्वर' प्रेम की इससे खुबसूरत संपूर्ण कोई दूसरी मिसाल नहीं कि प्रेमी-प्रेमिका को ये आभास कि वो एकाकी अपूर्ण हैं पूर्णता तो उनके मिलन में हैं वो मिलन जिसका गलत अर्थ समाज में प्रचारित होने के कारण ही समाज युवा प्रेमी-प्रेमिका का दुश्मन बन जाता कि वे सिर्फ इस मिलन को ही प्रेम समझते इसके पीछे के विज्ञान को नहीं समझते कि हर एक देह अपने आप में अधूरी परंतु वो किसी से भी मिलकर पूर्ण नहीं हो सकती केवल उससे जिस सांचे के लिए वो बनी और उसमें इस तरह से समा जाये कि दो अलग व्यक्तित्व न होकर एक नाम बन जाये उसी की तलाश का नाम प्रेम हैं । इसका ये मतलब कदापि नहीं कि उसे खोजने हम कई शरीरों से होकर गुजरे बल्कि उसे पहचाने जिस तरह ‘चातक’ या ‘परवाना’ पहचानता और केवल उसी से संगम करता जो उसके लिये बना हैं इस पहचान के लिए आत्मा की शुद्धता चाहिए जिससे अन्तःचक्षु अपने उस आधे धड़ को पहचान लेते बाकी तो कस्तूरी मृग की तरह अपने भीतर के प्रेम से अनजान ताउम्र इधर-उधर बंजारों से घूमते रहते हैं

‘वैलेंटाइन डे’ पर क्षणिक प्रेमोन्माद में कोई भी किसी को ‘आय लव यू’ बोलकर उसे अपना वही साथी समझ लेता फिर नशा उतरता तो उससे पीछा छुड़ाने बहाने तलाशता और सामने वाले के जेहन में ये तर्क भरने की कोशिश करता कि यदि जोश में कुछ हो भी गया तो गलत नहीं क्योंकि जो प्रेम में होता वो गलत नहीं होता और हमारे बीच जो कुछ भी हुआ वो उस वक़्त का सच था तो उसे गलत न समझकर भूल जाये और यही इसके विरोध की असल जड़ कि पहले प्रेम को समझो फिर करो तो उसके लिए किसी वैलेंटाइन वीक की जरूरत नहीं पड़ेगी वही सच्चा प्रेमोत्सव होगा इसी के साथ सभी को ‘वैलेंटाइन डे और महाशिवरात्रि पर्व की प्रेममय शुभकामनायें... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१४ फरवरी २०१८

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