पलटते हुये सफे
इक पुरानी डायरी के
यक-ब-यक पड़ गयी नज़र
सूखे गुलाब पर
तो आँखों के सामने
घूमने लगे बीते चलचित्र
जिसमें शामिल थी कई यादें
कुछ प्रेम पत्र और बहुत-सी सौग़ातें
जो भले ही लौटा दी गयी हो
पर, निर्माल्य ही तो बन चुकी
होकर समर्पित अपने प्रेम देवता को
तो अब जरूरी यही कि
विसर्जित कर दी जाये ये सभी
उस पावन गंगा में सदा-सदा के लिये
तभी जेहन में कौंधा कि
क्या मैं भी निर्माल्य नहीं बन गयी???
सबने देखा...
अगले दिन सुबह
गंगा में तैर रहे थे वही सब
मंदिर से प्रवाहित सामग्री संग
निर्माल्य का अंजाम सिवा इसके
और क्या हो सकता था भला ?
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१७ फरवरी २०१८
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