सोमवार, 2 अप्रैल 2018

सुर-२०१८-९२ : #दिमाग_दोस्त_या_दुश्मन_?



'मैं डिप्रेशन में हूं, इसलिए खुद की जान ले रही हूं।
इसके अलावा मेरी मौत की और कोई वजह नहीं है।
मेरा दिमाग ही मेरा दुश्मन है।'
--- वी. राधिका रेड्डी

एक ३६ वर्षीय आत्मनिर्भर महिला और एक सिंगल पैरेंट ‘वी. रंजना रेड्डी’ के आत्महत्या के पूर्व लिखे गये खत की ये तहरीर हैं जो दर्शाती हैं कि केवल, अपने पैरों में खड़े होना या खुदमुख्तार होना या अपनी मर्जी से जीवन जीने की आज़ादी मिलना ही जीने के लिये पर्याप्त नहीं क्योंकि, यदि ऐसा होता तो एक तेलुगु चैनल न्यूज़ चैनल V-6 में सीनियर टीवी न्यूज प्रजेंटर और अपने पति से तालमेल न होने के कारण स्वैच्छा से तलाक लेकर एकाकी जीवन को चुनकर अपने मन-मुताबिक लाइफ जीने वाली सुशिक्षित और सशक्त महिला ऐसा कदम हर्गिज नहीं उठती

ऐसे में ये सवाल उठता कि, ऐसा क्या हुआ कि वो इतने गहन अवसाद में चली गयी कि कल रात अपने ऑफिस से रात लगभग १०:३० बजे वापस आकर बिल्डिंग के पांचवे फ्लोर पर गई और छलांग लगा दी जब पिता उसके पिता ने जो उसका इंतजार कर रहे थे जोर से आवाज़ सुनी तो बाहर आकर देखा उनकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही उनकी प्रतीक्षा का ऐसा अंजाम उन्होंने भी नहीं सोचा होगा यहाँ तक कि उनके १४ वर्षीय पुत्र ‘बानू’ को भी ये अहसास न होगा कि उसकी मम्मी अचानक उसे इस तरह छोड़कर चली जायेगी जबकि, उसे उसकी सख्त जरूरत थी क्योंकि, वो मेंटली चैलेंज्ड हैं और अपनी माँ के बिना जीना उसे आता नहीं

पर, वो जो बाहर से हंसती-मुस्कुराती और टी.वी. पर समाचार पढ़ती नजर आती थी भीतर से इस कदर गहन अवसाद में जी रही थी कि आख़िरकार जब उसे सहन करना उसके मस्तिष्क की सहनशक्ति के वश का न रहा तो अपने दिमाग को अपनी मौत का जिम्मेदार ठहराकर उसने अपनी जान देने का निर्णय लिया जिससे जेहन में एक चिंतन उभरता कि...

आत्मनिर्भरता, आर्थिक आज़ादी, मनमर्जी की लाइफ स्टाइल, शानो-शौकत और ग्लेमर की चकाचौंध या माँ होने का सुख भी जीने के लिये कम पड़ जाता जब ‘दिमाग’ को अवसाद का दीमक खाने लगता जो सिद्ध करता कि ये सब सुख-सुविधा के साधन महज़ खोखले पुतले या दिखावटी साज़ो-सामान जो उपरी तौर पर तो आनंद देते लेकिन, अंतर को सुख तो सिर्फ और सिर्फ प्रेम का सुरक्षा कवच ही देता जिसका अभाव बड़ी-से-बड़ी हस्ती को इस तरह का कदम उठाने को मजबूर कर देता ऐसे में ये जरूरी कि हम अपनों को, अपने रिश्तों को और अपने मित्रों को तरजीह दे न कि इन निर्जीव भौतिक वस्तुओं की खातिर उनकी उपेक्षा करे जो भले ही कितने ही कीमती या कितनी ही ज्यादा संख्या में हो परंतु, जीवंत व्यक्ति का स्थान कभी नहीं ले सकती

जब भी मन उदास हो या जब तन्हाई निगल रही हो या जब तनाव भरी कोई स्थिति हो तो ऐसे में किसी ऐसे शख्स की आवश्यकता होती जो हाथों में हाथ लेकर अपनी सकारात्मक ऊर्जा, अपनी प्रेमिल ऊष्मा से उस विष को सोख ले जो अंतत इतना बढ़ जाता कि जिसके भीतर नीलकंठ बनकर उसे ग्रहण करने की शक्ति होती वो उसका शिकार हो जाता जैसे कि इस प्रकरण में हुआ ‘राधिका’ का छे महीने पहले ही अपने उस पति से जिसके साथ उन्होंने लव मैरिज की थी तलाक हुआ जिसके बाद वो अपने बेटे के साथ अकेली रहने लगी लेकिन, पुत्र पूर्ण रूप से स्वास्थ्य नहीं था और ११ वर्षीय शादीशुदा जिंदगी के बाद अकेलेपन की ये नीरसता रास न आई और जब वास्तविक धरातल का सामना हुआ तो भविष्य की चिंताओं ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया

इन सबका असर इतना अधिक उनके व्यक्तित्व पर भारी पड़ा कि उसके तले वे दब गयी और ऐसा कदम उठा लिया और इस तरह का जीवन जीने वाली स्त्रियों को ये सीख दे गयी कि ‘प्रेम’ सर्वोपरी हैं चाहे वो खुद से हो या फिर किसी दूसरे से और आत्मबल का होना भी जरूरी यदि अकेले ही सबका सामना करना हैं क्षणिक कमजोर पल इस तरह से घेर लेते कि यदि कोई सच्चा मित्र साथ न हो या कोई अपना या कोई भी ऐसी प्रेरणादायक बात जो सोच को सकारात्मक बना दे तो जो ‘दिमाग’ हमारा सबसे बड़ा दोस्त वही दुश्मन बन जाता हैं
            
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०२ अप्रैल २०१८

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