शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

सुर-२०१८-११० : #भेड़_होने_का_अपना_मजा_हैं #भीड़_बनने_में_बड़ा_फायदा_हैं



‘भेड़’ बड़ा ही मासूम और निरीह जानवर जिसे सिवाय चरने और मुंह झुकाकर चलने के कोई काम नहीं आता और आँख होते हुये भी इसका चलना-फिरना इतना यांत्रिक कि बस, सर को झुकाये अगली भेड़ के पीछे-पीछे चुपचाप चलती चली जाती बोले तो किसी परछाई की तरह अपनी अग्रगामी का ऐसा अंधानुकरण करती कि सामने गड्डा हो या कुआं या खाई कुछ नहीं देखना या सोचना एक गिरी तो केवल दूसरी ही नहीं उसके पीछे की सारी भेड़ों को भी उसी में जाकर गिरना हैं संस्कृत में इस ‘भेड़ियाधमान’ को ‘गड्डलिका-प्रवाह’ कहते हैं

उनकी इस आदत में सबसे बड़ी सोचने वाली बात ये हैं कि सबके पास अपनी-अपनी अलग-अलग दो आँखें ही नहीं मस्तिष्क भी विद्यमान लेकिन, जो आनंद इस तरह पीछे-पीछे चलने में हैं वो भला कहीं और कहाँ क्योंकि इसका सबसे बड़ा फायदा कि, हम अगले पर सारा दोष मढ़ हर तरह के आरोप से मुक्त हो जाते चाहे फिर कोई हमें अंधभक्त कहे या फिर कोई हमें किसी का अनुयायी समझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अपना दिमाग तो सहेजने की चीज़ जिसे फिक्स्ड डिपाजिट में बचाकर रखा तो भविष्य में अपने हित में प्रयोग लाया जा सकता हैं

इसी तरह ‘भीड़’ भी अपनी सोचने-समझने की क्षमता को गिरवी रख वही करती जो उसे समूह में करते लोग दिखाई देते इससे उसको कोई लाभ हो या न हो लेकिन, उसका गारंटीड स्वार्थ पूरा होता जो अपने फायदे के लिये इसका इस्तेमाल करता क्योंकि, वो अच्छी तरह से जानता हैं कि ‘गड़ेरिया’ बनकर ‘भीड़’ को ‘भेड़’ की तरह मनचाहा हांका जा सकता हैं तो बस, उसने एक मुद्दा लिया और हवा में उछाल दिया जिसे ‘भीड़’ कैच कर समझती कि उसके हाथ तो खजाने की चाबी लग गयी उधर वो चुपचाप छिपकर तमाशा देखता कि किस तरह से उसके इशारों पर भीड़ तमाशा कर रही हैं

इस कमजोर नब्ज का ज्यादातर फायदा राजनेता उठाते जो अच्छी तरह से जानते कि, जनता दिमाग होते हुए भी सोचने की जेहमत नहीं उठायेगी तो बस, वे संवेदनशील मामलों को जनता के हित में बताकर खुद अलग हट जाते फिर जनता आपस में भिड़ती और अनजाने में उनकी अवैतनिक सलाहकार या बोले तो प्रचारक बनकर उनका काम आसान करती जहाँ वो उनके पक्ष में पुरे दमखम से अपनी बात रख दूसरों को वही उपाधि देती जो वो स्वयं होती बोले तो ‘अंधभक्त’ इसमें उसका कुसूर नहीं उसे ये पता ही नहीं कि वो भी वही काम कर रही हैं     


इस तरह ‘भेड़’ या ‘भीड़’ बनने के मजे ही नहीं बड़े-बड़े फायदे भी होते जो ‘समाज’ ही नहीं ‘सोशल मीडिया’ में भी सब उठाते दिखाई दे रहे ‘एक’ तो जिनके पास कोई काम नहीं वो भी अब बेहद व्यस्त हैं ‘दूसरा’ कि इस बहाने से अपने मन की भड़ास भी निकल जाती तो व्यक्ति तनावरहित हो जाता ‘तीसरा’ जिससे चिढ़ उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अच्छी तरह से गरिया कर खुद का दामन साफ़ बचा लिया जाता ‘चौथा’ यदि हम कहीं गलत भी निकले तो कम से कम अकेले ही शर्मिंदा तो नहीं होंगे और सबसे अंतिम फायदा कि यदि कहीं हमारा तुक्का लग गया तो वो भी लाटरी से कम नहीं कोई न कोई पद तो मिल ही जायेगा इसलिये यहाँ कुछ लोग अपने फॉलोवर बढ़ाकर किसी ‘नेता’ या ‘सरगना’ या बोले तो ‘गड़ेरिया’ की तरह उन्हें निर्देशित कर रहे हैं   

ये किसी भी मुद्दे के पक्ष में उट-पटांग दलीलें देकर अपनी गलत बात को सही साबित करते और अत्याधुनिक तकनीक की वजह से इनका काम आसान हो जाता कि कभी कहीं से अपने किसी भाड़े के टट्टू से लिखवाये किसी आलेख की ‘लिंक’ दे दी तो कभी ‘फोटोशॉप’ किया गया कोई सुबूत पेश कर दिया अब जिसको इसका ज्ञान नहीं वो इसे ‘शेयर’ और ‘लाइक’ कर अपने आपको बहुत बड़ा समाजसेवक समझता जबकि, वास्तव में वो ‘भेड़’ बनकर गड्डे में गिर रहा इसमें ताज्जुब करने की कोई बात नहीं क्योंकि, अपनी आँखों में बंधी पट्टी की वजह से उसे अभी वो गड्डा दिखाई नहीं दे रहा इसलिये वो धीरे-धीरे उसमें धंसता जा रहा हैं       

ऐसे विषैले माहौल में ‘स्वामी विवेकानंद’ की ये उक्ति फिर से आत्मसात करने की सख्त जरूरत हैं...

“कोई व्यक्ति चाहे कितना भी महान क्यों ना हो कभी-भी आँख मूँद कर उसके पीछे नही चलना चाहिये । यदि ईश्वर की ऐसी ही मंशा होती तो वह हर प्राणी को  आँख, नाक, कान, मस्तिष्क और मुंह क्यों देता। ईश्वर ने जब ये सब हर किसी को दिया है तो हमें उसका उपयोग करना चाहिये। सोच समझ कर सारे  काम करने चाहिये” ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० अप्रैल २०१८

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