उदास हैं
किताबें
करीने से सजी
हुई अलमारियों में
तरसती कोमल
उँगलियों को
पर, अब निकलता न कोई इन्हें
ताकती रहती
अपलक
खोये हुये
बच्चें सारे मोबाइल में
पढ़ते नहीं ‘पचतंत्र’ या ‘अमर कथायें’
न ही दिलचस्पी
उनकी जो सुने किस्से पुराने
दादी-दादी और
नाना-नानी के
सूखे गुलाब जो
रखे गये पन्नों पर कभी
इंतजार में अब
तलक भी हैं
कोई तो आकर फिर
से पलटे उनको
जिये उन पुरानी
यादों को जो छूट गई पीछे
आज भी बसती
किताबों में सारी दुनिया
फूल-पत्तियां,
पेड़-पौधे, चिड़ियाँ, गिलहरी और
तितलियाँ
लिखे गये
शब्दों से होते साकार चित्र
सामने उभरते
नैन-नक्श और ऐतिहासिक चरित्र
संजोकर रखी जो
उनमें अनगिनत स्मृतियाँ
रह जायेगी बनकर
वो सिर्फ इतिहास
तकनीक के बढ़ते
कदम लील रहे जिस तरह
प्राचीन
संस्कृति और विरासत हमारी
एक दिन मिट
जायेगा इनका नामो-निशां तक
जो अब भी दर्ज
तो हैं किताबों में
मगर, कब तक सोचना पड़ेगा इसे अभी
‘विश्व पुस्तक
दिवस’ ये कहता...
खो गयी अगर,
किताबें खो जायेगी सृष्टि
रहेगी ई-बुक्स
या पी.डी.एफ. में बदली चंद पुस्तकें साथ
जिनमें न होगी
कोई खुशबू न कोई अहसास ॥
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
२३ अप्रैल २०१८
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