सोमवार, 17 जून 2019

सुर-२०१९-१६७ : #मन_के_रूप_अनेक #कह_गये_संत_कबीर_ये_भेद



दुनिया की प्रयोगशाला में नित होने वाले अनुभवों से निष्कर्ष निकालकर उसे सूत्र में बंधने का कार्य जिस तरह से संत कबीर ने किया वो एक संत प्रवृति के समाज सुधारक के द्वारा ही संभव है उन्होंने अपनी वाणी से किसी विशेष धर्म नहीं बल्कि, प्रत्येक मजहब की गलत बातों व कुरीतियों का खुलकर विरोध जताया और वो भी उस भाषा में जो जन-जन की है ताकि, किसी सामान्य व्यक्ति को भी उसके भाव ग्रहण करने में कोई दिक्कत नहीं हो यही वजह कि इतने बरसों बाद भी उनके मुख से निकले वो वचन आज भी उतने ही प्रासंगिक है क्योंकि, समय या युग परिवर्तन से लोगों की मानसिक स्थिति व जीवन दर्शन नहीं बदलता वो तो शाश्वत है इसलिए हर कालखंड में जब भी कुछ वैसा घटित होगा जिसे देखकर या सुनकर उनके मुंह से वो कथन निकला तो ऐसी हर परिस्थिति में उनका कहा गया दोहराया जायेगा कि उनका हर एक शब्द वास्तव में मनोविज्ञान है जिसे पढ़कर हम मानव मन की जटिलताओं व अंतर में चलने वाली गतिविधियों को समझ सकते है

वैसे तो हम उनका नाम समाज में प्रचलित कुरीतियों पर किये जाने शाब्दिक प्रहार के लिये सर्वाधिक लेते है लेकिन, उन्होंने केवल गलत के खिलाफ ही नहीं बोला बल्कि, प्रेम, दया, परोपकार, ज्ञान, मोह, माया, कर्म, काम, क्रोध, स्वार्थ जैसे मन में उठने वाले अहसासों पर भी बड़ी खुबसूरती से अपने मन्तव्य को स्पष्ट किया है पर, हम अमूमन उन्हीं सूक्तियों व दोहों को बार-बार प्रयोग में लाते जो व्यवाहर में अधिक प्रचलित पर, आज कबीर जयंती पर हम उन वाणियों का विशेष रूप से उल्लेख करेंगे जो ‘मन’ जैसे दुरूह विषय पर आधारित जिससे कि शायद, किसी अनसुलझी गुत्थी को सुलझाने में कोई मदद मिल जाये क्योंकि, ‘मन’ को तो एक पहेली कहा गया है जिसे समझने के प्रयास लगातार जारी तो जिस तरह से उन्होंने समझा और व्यक्त किया हम भी उसे उस तरह से समझने की कोशिश करते है...

मन किस तरह प्रतिपल बदलता रहता उसे उन्होंने कुछ इस तरह से ज़ाहिर किया...

मन के बहुतक रंग है, छिन छिन बदले सोय
एक रंग मे जो रहे, एैसा बिरला कोय

अर्थात, मन के अनेको रंग-विचार है और यह क्षण-क्षण बदलता रहता है । जो मत सर्वदा एक मन में स्थिर रहता है - वह दुर्लभ कोई एक संत होता है । वाकई, हम सब हमेशा यही महसूस करते कि हमारे भीतर विचारों का अंधड़ चलता रहता बहुत मुश्किल से ही हम किसी एक निर्णय पर स्थिर हो पाते है क्योंकि, ये चंचलता मन का नैसर्गिक स्वभाव है

मन के इस रंग बदलते स्वरुप को उन्होंने इस तरह से भी दर्शाया...

कबहुक मन गगनहि चढ़ै, कबहु गिरै पाताल
कबहु मन अनमुनै लगै, कबहु जाबै चाल

अर्थात, कभी तो मन मगन में बिहार करता है और कभी पाताल लोक में गिर जाता है । कभी मन ईश्वर के गहन चिंतन में रहता है तो कभी संसारिक बिषयों में भटकता रहता है उफ़, यह मन अत्यंत चंचल है किसी ठौर नहीं ठहरता एक पल जो ठीक लगता अगले ही पल गलत लगने लगता कि इसकी गति तो वायु से भी तेज जो रूकती ही नहीं

यही नहीं उन्होंने तो इसे लालची भी कह दिया...

कबीर यह मन लालची, समझै नाहि गवार
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार

अर्थात, कबीर के अनुसार यह मन बहुत लालची है यह गॅवार की तरह नहीं समझता है । प्रभु की भक्ति के लिये तो आलसी बना रहता परंतु, खाने भोजन के लिये हमेशा तैयार रहता है । वाकई, मन केवल अपने मन की सोचता जो उसे पसंद या अच्छा लगता वो सदैव वही करना चाहता है फिर भले उसकी वजह से नुकसान हो जाये पर, उसे तो मन की करनी ही है । सिर्फ, वही जिन्होंने इस पर काबू किया वही बच पाते बाकी तो इसके इशारों पर नाचते रहते है ।

मन के भीतर एक साथ अनेक ख्याल चलते रहते जिनको समझना जरूरी है इसलिये उनके अनुसार चलने से पहले कबीर की इस वाणी पर विचार कर ले...

मन के मते ना चलिये, मन के मते अनेक ।
जो मन पर अस्वार है, सो साधू कोइ एक ॥

अर्थात, मन के कहने पर मत चलें मन के भीतर तो अनेक विचार रहते है । जो मन सर्वदा एक स्थिर रहता है - वह दुर्लभ मन कोई एक होता है । वाकई, मन में अनगिनत विचारों का बवंडर उठता रहता जो अपने साथ हमें भी ले उड़ता है । ऐसे में ये समझना जरूरी कि हम मन नहीं ‘मन’ हमारे तन का एक हिस्सा है । हमें मन के अनुसार नहीं चलना बल्कि, उसे अपने निर्देशानुसार चलाना है ।

इसलिये उन्होंने इस चंचल व लालची मन को वश में करने का तरीका भी यूँ बताया...

चंचल मन निशचल करै, फिर फिर नाम लगाय
तन मन दोउ बसि करै, ताको कछु नहि जाय

अर्थात, इस चंचल मन को स्थिर करें और इसे निरंतर प्रभु के नाम में लगावें । अपने शरीर और मन को वश में करें आप का कुछ भी नाश नहीं होगा । अस्थिर मन को स्थिर करने का तरीका कि उसे सद्विचारों में लीन कर दिया उसे ईश्वर की भक्ति में डूबो दिया जाये तब सिवाय ईश ध्यान के उसे कुछ सूझेगा नहीं और हम कुछ भी गलत कभी करेंगे नहीं पर, ये इतना आसान नहीं तो साधक के सिवाय सब कर नहीं पाते है

प्रभु को पाने का तरीका भी उन्होंने मन के माध्यम से इस तरह कहा,

चिन्ता चित्त विशारिये फिरि बुझिये नहीं आन
इंद्री पसारा मेटिये,सहज मिलिये भगवान

अर्थात, मन में चिंताओं को भूल जाईये और दूसरों से भी उनकी चिंताओं को मत पूछिये । अपने बिषय इन्द्रियों को फैलने से नियंत्रन करें तो आप सहज हीं प्रभु को पा लेगें । पढ़कर देखें तो लगता कितना सहज है ये मार्ग पर, अमल करो तो अहसास होता कि इतना दुष्कर कोई दूजा कार्य नहीं क्योंकि, मन में जब चिंता का रोग लगता तो वो चिता सम बन जाता है निरंतर उसी सोच में धूनी की तरह जलता रहता और जो एक बार उसे झटक दिया तो कोहरे छंटने से जैसे सब साफ हो जाता कुछ उसी तरह सब स्पष्ट नजर आने लगता है

क्योंकि, कबीर ने कहा है कि,

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कहे कबीर हरि पाइये, मन ही के परतीत

अर्थात, मन के हारने पर आप हारते है और मन के विजय होने पर आप जीत जाते हैं । यदि मन में पूर्णविश्वास हो तो आप प्रभु को सुगमता से पा सकते है । सिर्फ, मन के भीतर अटल विश्वास की लौ जगाने की जरूरत है सब कुछ स्वयमेव ही सध जाता है  

इतना सब कुछ कहने के बाद उन्होंने ये भी हम पर ही छोड़ दिया कि हमें क्या करना है...

कबीर मन तो एक है, भाबै तहां लगाय
भाबै गुरु की भक्ति कर, भाबै विषय समाय

अर्थात, कबीर कहते है यह मन तो एक ही है और तुम्हारी जहाँ इच्छा हो इसे वहाँ लगाओ
मन हो तो इसे प्रभु भक्ति में समर्पित करो या विषय भोगों में लगाओ । मन है आपका तो निर्णय भी आपका ही चलेगा जिसे बेहद सोच-समझकर आपको लेना है

इसकी महिमा को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर पाना कठिन इसलिये उन्होंने कहा...

अकथ कथा या मन की, कहै कबीर समुझाय
जो याको समझा परै, ताको काल ना खाय

अर्थात, इस मन की कथा अनन्त है ‘कबीर’ इसे समझा कर कहते हैं । जिसने इस बात को समझ लिया है उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है । 
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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून १७, २०१९

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