रविवार, 23 जून 2019

सुर-२०१९-१७३ : #ये_कहाँ_आ_गये_हम #बच्चे_भी_बन_रहे_बलात्कारी_अब




एक-दो दिन के भीतर होने वाली इन दो घटनाओं को यदि अभी हमने उसी तरह नजरअंदाज कर दिया जैसा कि अब तक करते आये तो आने वाले दिनों में सबसे ज्यादा नाबालिग किशोर बच्चे बलात्कारी के रूप में कटघरे में खड़े होंगे क्योंकि, जिस तरह की आरामदायक सुविधापरस्त भोगवादी जीवन शैली हम सब लोगों ने अपना रखी उसमे ये सब बेहद सामान्य माना जायेगा ।

आखिर, हम ही तो अपने बच्चों के हाथों में मोबाइल थमा रहे, हॉलीवुड / बॉलीवुड फिल्में देखने दे रहे लेकिन, जब हमें ये खबर मिलती कि किसी 11 साल के बच्चे ने एक 4 साल की मासूम बच्ची के साथ रेप कर दिया तो हमारे मुंह से अनायास ही निकलता कि, इम्पॉसिबल बच्चे ऐसा कर ही नहीं सकते वो तो ये सब समझते नहीं जरूर समझने में गलती हुई होगी या फिर उसने जिज्ञासावश कुछ किया होगा जिसे बलात्कार कहना सही नहीं है ।

मगर, अब समाचारों की हैडलाइन में लिखा आ रहा कि...

21 जून, देहरादून के डालनवाला क्षेत्र में एक तीन वर्षीय बच्ची के साथ कथित तौर पर 11 वर्षीय पड़ोसी के दुष्कर्म करने का मामला सामने आया है । पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार, घटना के वक्त बच्ची के माता-पिता काम पर गये हुए थे जबकि वह अपने दो बड़े भाई बहनों के साथ घर में थी । आरोपी लड़का बच्ची को अपने घर ले गया जहां उसने उसके साथ कथित तौर पर दुष्कर्म किया ।

22 जून, बठिंडा जिले के गांव में एक 4 साल की मासूम बच्ची के साथ पड़ाेसी 13 साल के लड़के ने रेप कर दिया फिर पकड़े जाने के डर से लड़के ने जहर निगल लिया।

ये दो दिन के भीतर घटित होने वाली वे दो वारदातें है जो हमें आने वाले घृणित भविष्य के प्रति आगाह करती है यदि अब भी हम न चेते और इस यूँ ही जाने दिया तो फिर आने वाले दिनों में जब इस तरह की खबरों की संख्या में इजाफा होगा तो हमें ये शिकायत करने के भी हकदार नहीं होंगे कि आखिर, हम ये कहाँ आ गये, ये किस तरह हो गया क्योंकि, हर आने वाली मुसीबतों या आपदाओं के इसी तरह से संकेत मिलता हम ही अपनी मस्ती में गाफ़िल उसको देखकर भी अनदेखा कर देते है ।

ऐसा तब तक करते रहते जब तक कि ये समस्या में तब्दील नहीं हो जाता भले, ही सुना-पढा हो या इससे वाक़िफ़ भी हो कि सुरक्षा या सावधानी दुर्घटना से बेहतर है पर, अमल में कब लाते यदि ऐसा होता तो मुजफ्फरपुर में बुखार से जो इतने बच्चे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये न होते कि पिछले 25 वर्षों से मौसम परिवर्तन पर ये देखने में आ रहा पर, किसी सरकार या समाज ने इसको रोकने आज तक कोई व्यवस्था नहीं कि बल्कि, इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया कि जून में या अगस्त में ऐसा होता ही है शायद, आगे भी ऐसा ही कहे कोई कि बच्चे कमउम्र में जवान हो रहे तो हार्मोन बदलने से ऐसा होना स्वाभाविक है तब हो सकता हम भी इसे इसी तरह से स्वीकार कर ले ।

जैसे अभी भी बलात्कार की घटनाओं पर दो-चार दिन हल्ला मचता, कैंडल मार्च किया जाता, रैलियां / धरना प्रदर्शन होते अंततः सब खामोश होकर बैठ जाते कि लगातार यही सब करते-करते हमने उसे रेप की प्रतिक्रिया मान लिया जबकि, हम सबको तब तक अपना विरोध दर्ज करना चाहिये जब तक कि इस पर पूर्णतया विराम न लग जाये लेकिन, अब तो इसमें भी धर्म / मज़हब का प्रवेश होने से इसके खिलाफ बोलने वाले भी बंट चुके है बोले तो मानवीयता, नैतिकता व संवेदनाओं का अनवरत पतन जारी है ।

मोबाइल ने जहां हमारी ज़िंदगी को थोड़ा आसान बनाया वहीं दूसरी तरफ हमारा चैन, सुकून ही नहीं समय भी हमसे छीन लिया अब हमारे पास अपने रिश्तों या अपनों को देने के लिये रेडीमेड मैसेज या वीडियोज तो है पर, फुर्सत से बतियाने या समझाने का वक़्त नहीं कि हर समय जल्दी पड़ी रहती और बहुत कुछ टालते जाते कि फ्री होकर अच्छे से करेंगे लेकिन, वो वक़्त कभी नहीं आता वो बच्चे जो बचपन में हमसे दो-पल मांगते इतने बड़े हो जाते कि अब उनके पास हमारे पास बैठने की भी फुर्सत नहीं बोले तो घड़ी की सुइयों की तरह गोल-गोल जीवन बीतता जाता वही सब कुछ फिर दोहराया जाता जिसमें बच्चे ही होते जो बड़ों के बीच एडजस्ट नहीं हो पाते और बड़े उनसे पीछा छुड़ाने गेजेट्स हाथ में थमा देते है ।

उसके बाद जब वो कुछ भी घटिया-सा देखकर उसे इस तरह से आजमाता तो बोलते ये कब और कैसे हुआ ? हमने तो इसकी इतनी अच्छी तरह परवरिश की, इसके मांगने से पहले सब कुछ दिया इसकी हर विश पूरी की, सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाया तो पता नहीं ये ऐसा कैसे निकल गया जरूर किसी ने इसे बहकाया है । ये सबसे बढ़िया ढाल है खुद को बचाने की पर, भीतर वे भी जानते कि वजह वे खुद है जब गीली मिट्टी को मनचाहा आकार दे सकते थे तब उसे बिखर जाने दिया और जब वो खुद को समेटकर अपने हिसाब से बनाने लगा या किसी दूसरे ही सांचे में ढल गया तो हम उसे तोड़ने लगे क्योंकि, जो तैयार हुआ ये वो नहीं था जो हमने मन में सोचकर रखा था इसके बाद भी हम अपनी गलती मानने तैयार नहीं होते अपने दोष / अपराध को किसी बहाने की खोल में छिपाकर खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते कि इसमें हमारा क्या दोष क्या हम अपनी जिंदगी नहीं जीते ? क्या हम सब काम-धाम छोड़कर इसे ही संभालते रहते ?? हमने जो किया इसके लिये ही तो किया फिर ये ऐसा कैसे निकल गया ।

दरअसल, ये सब महज़ अपनी गिल्ट को कम करने के तरीके असलियत ये है कि आज ज्यादातर पेरेंट्स को उस समय बच्चे बोझ लगते, अपने कैरियर के बैरियर लगते, लाइफ को एन्जॉय करने के दौरान मुसीबत महसूस होते जब वे उनसे उनके समय की डिमांड करते जिसे छोड़कर वे उसे सब कुछ देने तैयार । ये जिंदगी हमने ही खुद इतनी उलझ ली है कि अब समझ न आ रहा कि इसे किस तरह सुलझाये इससे बेहतर तो हमारे पूर्वज थे जिन्होंने कम कमाई में ज्यादा बच्चों को पाला ही नहीं संस्कारित सभ्य इंसान भी बनाया और एक हम है जो उनसे अधिक शिक्षित, सुविधासंपन्न, पैसे वाले पर नैतिकता विहीन ।

उस पर तर्क ये कि आज के जमाने में दोनों की कमाई बगैर पूरा नहीं पड़ता, पढ़े-लिखे होकर घर में बैठने का क्या फायदा, आजकल के बच्चे किसी की नहीं सुनते, मंहगाई इतनी कि जॉइंट फैमिली में रहना नामुमकिन मगर, ऐसे हालात में ही हमें समाधान निकलाना होगा कुतर्कों से खुद का बचाव करने की जगह ये सोचना पड़ेगा कि इसे रोकने का उपाय क्या है यदि हम बढ़ती महंगाई या अपनी ख्वाहिशों को लगाम नहीं लगा सकते तो इनका हल तो खोज ही सकते है जो हमारे बच्चों को इस हद तक गिरने से रोके अन्यथा उनकी पैदाइश पर ही बंदिश लगाई जाये क्योंकि, किसी बच्चे को मात्र पैदा करना ही जीवन देना नहीं है ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
जून २३, २०१९

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