सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-४४ : ‘वसंतोत्सव बनाम वैलेंटाइन डे के सात दिन’ ‘सातवां दिन – किस डे’ !!!

साथियों... नमस्कार...


‘किस’ शब्द को ‘आय लव यू’ की तरह इतनी बार दोहराया जा चुका हैं कि इसने अपना अर्थ ही खो दिया और यदि कोई इसे कहे तो बड़ा ‘चीप’ बोले तो हल्का मालूम पड़ता जिसकी एक वजह फिल्मों में इसका आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल किया जाना हैं जिसने जनमानस में इसका केवल एक ही अर्थ बिठा दिया हैं जिसकी वजह से भारतीय समाज में इस विषय पर बात करना भी गलत माना जाता यही वजह कि ‘वैलेंटाइन वीक’ को भी हेय नजरों से देखा जाता क्योंकि इस सप्ताह के तो सातो दिन ‘प्रेम’ के अलग-अलग रूमानी अहसासों से जुड़े जिसे करते तो सब और करना भी चाहते लेकिन जिस देश में ‘वात्सयायन’ की लिखी किताब हो या प्रेमरत मूर्तियां उनको देखना तक गलत माना जाता वहां प्यार का ऐसा खुला प्रदर्शन किस तरह से गंवारा किया जायेगा तो हम भी इससे सहमत नहीं क्योंकि ये आत्मा का विषय, बड़ी पवित्र भावना जिसे इस तरह सार्वजनिक रूप से बयान करना सही नहीं लेकिन बाजारवाद के इस दौर ने हर शय को बिकाऊ बन दिया तो फिर ‘प्यार’ किस तरह से उसकी नजरों से बच सकता तो वो भी अब बिकता नजर आता ऐसे में उसका यूँ सस्ता बनाये जाना वाकई विरोध के काबिल लेकिन यदि उससे जुडी भावनाओं को समझने का प्रयास किया जाये तो फिर महसूस होगा कि इस अनुभूति को हमारे देश और विदेशों में अलग नजरिये से देखा जाता तो ऐसे में हमारा भी फर्ज़ कि जिस तरह वो अपने देश की संस्कृति व परंपरा का निर्वहन करते उसी तरह से हमें भी अपनी गरिमा की रक्षा करनी होगी नहीं तो उनमें और हम में क्या भेद रह जायेगा ???


वैश्वीकरण या ‘ग्लोबलाइजेशन’ का ये तात्पर्य कतई नहीं कि हम किसी दूसरे मुल्क की प्रतिकृति बन जाये बल्कि अपनी पहचान को बरकरार रखते हुये दूसरों की अच्छी बातों या चीजों को इस तरह से अपना रंग देकर अपनाये कि किसी से पीछे भी नजर न आये और किसी की नकल भी न लगे जिस तरह से वो लोग भी हमारे यहाँ की खासियतों को बिना निजता त्यागे ग्रहण करते तो इस तरह बिना विरोध किये भी हम अपने लोगों के मन में ये बात बिठा सकेंगे कि कोई भी ‘ट्रेडिशन’ बुरा नहीं पर, जो अपने आप को भूला दे या आपकी अपनी निज पहचान छीन ले वो सही नहीं हो सकता और इस सप्ताह की तो विशेषता कि ये रूमानी अहसासों से जुड़ा जो किसी भी हर देश के बाशिंदें का एक-समान ही होता तो लेकिन उसे जताने का तरीका बेशक सबका अलग ही होता तो हम इसे अपने ही तरह से मनाये क्योंकि बचपन से जो हमारे दिलों-दिमाग में बिठाया गया हो उसे एक दिन में बिसरा कर यूँ पराये लोगों का अनुसरण ठीक नहीं इसी तरह हम देखें तो ये ‘किस’ हमारी सभ्यता का हिस्सा नहीं पर, ‘चुंबन’ तो हैं न जिसका प्रथम अनुभव हम जन्म के साथ ही लेते जब हमारे जन्मदाता हमारे माथे पर अपने स्नेहासिक्त अधर रखकर हमें उस मिठास से परिचित करवाते तो वो कोमल स्पर्श हमें भीतर तक सुकून से भर देता...

हम सब बचपन से ही प्रेम की इस पप्पी से परिचित हो जाते और अक्सर हमारे पालक अपने गालों पर हमारी इस चुम्मी को पाने हमसे तरह-तरह से अनुरोध भी करते और कभी वही माता-पिता बड़े प्यार से हमारी पेशानी को यूँ चूमते कि वो एक चुंबन नहीं बल्कि चंदन का तिलक बन जाता और उनका ये आशीर्वाद हमारे भीतर अपर विश्वास भर देता कि एक दिन जीवन संग्राम में हम ही विजेता बनकर उभरेंगे याने कि हमारे लिये ‘किस’ महज़ प्रेम दर्शाने का माध्यम नहीं बल्कि ये हमारे बुजुर्गों का आशीष भी हैं तो बड़ों का हमारे प्रति स्नेह और छोटो का हमको दिया गया मासूम प्यार जिसे पाकर हम उत्साह से भर जाते तो दोस्तों इसे सस्ता न बनाये कि इसके प्रति आकर्षण न रह जाये और न ही इसका केवल एक ही अर्थ निकाले क्योंकि ये अपने आप में गहन अर्थ समाहित किये जिन्हें ‘किस’ में परिभाषित करना संभव नहीं क्योंकि उससे केवल एक ही छवि निर्मित होती तो ‘किस डे’ मनाओ पर, किसी ऐसे गाल या माथे या हाथों को भी चूमो जिसे इस स्वाद का पता नहीं क्योंकि कोई खुद को चूम तो सकता नहीं पर, बाँट तो सकता उन्हें जिनको मिला नहीं... फिर अहसास होगा कि यूँ ही तो इस देश में नहीं कहा जाता कि प्यार बांटते चलो... :) :) :) !!!       
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१३ फरवरी २०१७

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