मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-४५ : वसंतोत्सव बनाम प्रेमोत्सव का अंतिम दिन... ‘वैलेंटाइन डे’ !!!

साथियों... नमस्कार...


‘प्रेम’ इस देश की माटी के कण-कण और लोगों की रगों में बहते लहू की बूंद-बूंद में समाया हैं या यूँ कहे कि इस अहसास को हर कोई अपने साथ लेकर ही पैदा होता क्योंकि प्रेम से ही तो एक जीवन का निर्माण होता हैं तो फिर उसी ‘प्रेम’ से बने इंसान को किसी दूसरे इंसान से प्रेम करने से क्यों रोकते हैं वही लोग जिन्होंने खुद प्यार से उस निर्जीव प्रतिमा में प्राण फूंककर उसे जीवंत बनाया इसकी वजह भी यदि हम ढूंढें तो जवाब मिलता ‘प्रेम’ कि अपने ही अंश से बनी उस काया से भी उन्हें इतना अधिक स्नेह होता कि उसकी जरा-सी भी तकलीफ या दुःख वो बर्दाश्त नहीं कर पाते बल्कि इस कल्पना से भी इतना भयभीत रहते कि उसे इस पथरीली राह में चलने से रोकते क्योंकि उन्हें इल्म होता कि भले ही वो मासूम बालक/बालिका समय की रफ़्तार संग दौड़ते क़ुदरती परिवर्तनों के चलते किशोर/किशोरी में परिवर्तित हो गये फिर भी अभी अनुभवों की चक्की में पिसे नहीं तो उसमें इतनी समझदारी या अक्ल नहीं कि वो सही-गलत की पहचान कर सके जिसे उन्होंने चुना, उसको वफ़ा की कसौटी पर परख सके क्योंकि अभी तो वे केवल देह के भीतरी रसायनों के स्त्रावण के वशीभूत होकर किसी से भी आकर्षित हो सकते और ऐसे में यदि उन्हें धोखा मिला तो न जाने क्या हो इस तरह के ख्याल मात्र से वो इतने घबरा जाते कि प्रेम से पगे होने पर भी प्रेम सागर की मीन को उसमें गोते लगाने से बचाते जो सदैव संभव नहीं होता याने कि सर्वत्र बस, प्रेम ही प्रेम जो अदृश्य होकर भी हवा की तरह जीने के लिये जरुरी होता हैं...

हमारे यहाँ सोलह बरस की उमर को इसके लिये मुफ़ीद करार दिया गया हैं सिर्फ हमारे यहाँ नहीं दूसरे मुल्कों में भी ‘टीन ऐज’ को इस संभावित खतरे से बचाने के प्रयास किये जाते कि ये वयसंधि का ऐसा दौर जिसके कारण शरीर में अनेक परिवर्तन होते जिन्हें नादान बच्चे समझ नहीं पाते तो कई बार कुछ लोग उनका फायदा उठा लेते जो आजकल ज्यादा देखने में आ रहा ऐसे में पालकों की चिंता एकदम जायज लेकिन फ़िलहाल हम जिस मुद्दे की बात कर रहे या अपने किशोर बच्चों को जिस संभावित दुर्घटना से बचाने की बात कर रहे उस प्रेम यात्रा के दोनों ही राही अमूमन अंजान होते वो तो बस, दैहिक हलचल को ही ‘प्रेम’ समझ बैठते जबकि ये महज़ ‘आकर्षण’ माना गया हैं जो एकदम स्वाभाविक हैं पर, कब ये सामान्य नजर आने वाले लक्षण ‘प्रेम रोग’ बन जाते ये कोई समझ नहीं पाता उस पर, ये कमसिन उम्र किसी छोटे-से झटके से भी अपने सुनहरे जगमगाते भविष्य को अंधकारमय कर सकती तो ये आशंका ही इस विरोध की मूल और ये वो भी जानते कि जहाँ ये दौर कुशलतापूर्वक गुज़रा तो फिर न केवल वो भी थोड़ा मजबूत हो जायेंगे बल्कि उनके अहसासों में भी शिद्दत जाग जायेगी तब वो सोच-समझकर ही इस राह पर चलेंगे तो सिर्फ़ प्रेम की खातिर ही ही वो उनको प्रेम करने से रोकते जबकि वो भी जानते कि ये कोई चीज़ नहीं जिसे रोका जा सके ये तो फिजाओं में घुली ‘ऑक्सीजन’ जिससे सबकी सांसे चल रही अलबत्ता सबका ‘प्रेम’ अलग हो सकता जरूरी नही कि वो किसी इंसान के प्रति ही हो...

ये भी एक सच कि हीर-राँझा, लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, ससी-पुन्नू, ढोला-मारूं, मिर्ज़ा-साहिबां जिनकी प्रेम-कहानियां चारों-तरफ बिखरी लोकगीतों या जनश्रुतियो में दोहराई जाती जिन्हें हम बचपन से सुनते आये ही केवल प्रेमियों को प्रेरणा नहीं देता बल्कि इतिहास हो या आध्यात्मिक दुनिया हर जगह ऐसे कई किस्से मिल जाते याने कि कोई भी क्षेत्र नहीं जो इससे अछूता हो क्योंकि जहाँ दिल होगा वहां धड़कन होगी और जहाँ धड़कन होगी वहां उसके धड़कने की कोई न कोई वजह भी होगी कि हृदय को विज्ञान भले किसी तरह परिभाषित करे लेकिन हम तो उसे महज़ शरीर का एक हिस्सा नहीं बल्कि पूरा जिस्म समझते जिसके इशारों पर हंसते-रोते, जीते-मरते और एक बार जो ये बुझ गया तो फिर धडकनें भले ही चलती रहे जिंदा होकर भी खुद को मरा-सा महसूसते कि ‘प्रेम’ की इस सशक्त मौजूदगी ने ही तो दुनिया को थाम रखा और सिर्फ़ हम जीवधारी ही नहीं प्रकृति भी इस अहसास से ही चलती देखो अपने आस-पास तो फूल-भंवरा, शमां-परवाना, नदी-सागर, धरती-आकाश सब मुहब्बत की अदृश्य ड़ोर से बंधे नजर आते जिन्हें देखकर मन ये जानते-बूझते भी कि उसे तैरना नहीं आता उनकी तरह प्यार के सागर में डूब जाना चाहता क्योंकि वो जानता कि प्रेम के दरिया में जो डूबा वही उबरा हैं बशर्तें डूबने वाले में वो विश्वास और वफ़ादारी हो कि वो एक के प्रति ही इमानदार रहे तो फिर ऐसे प्रेमी को प्रेम ही थाम लेता...

यूँ तो प्रेम के कई मानक लेकिन ‘अर्धनारीश्वर’ सा संपूर्ण प्रेम कोई अन्य नहीं और ‘मीरा’ सी भक्ति का तो कोई जवाब ही नहीं कि उसकी प्रीत में प्रेम की पराकाष्ठा हैं वो तो जिसे कभी देखा नहीं उसे चाहती और प्रेमियों को ये संदेश देती कि साक्षात् होना जरुरी नहीं प्रेम की प्रतिमा को भी इतनी गहराई से अपनाया जा सकता कि उसके लिये विष भी पिया जा सकता हैं वो भी बिना किसी आकांक्षा के जब हो जाये किसी से ऐसी आशिकी तब फिर रब भी आपको उससे मिलाने की जुगत में लग जाता तो ‘वैलेंटाइन डे’ को यदि इन अर्थों में मनाया जाये ‘प्रेम’ को समझने की चेष्टा की जाये तब उसके प्रदर्शन की आवश्यकता खत्म हो जायेगी और आप ‘मीरा’ की तरह प्रेम-मग्न होकर हर तरफ अपने प्रेम के दर्शन करोगे इसलिये बाजारवाद के बिछाये झूठे जाल में न फंसो और न ही इस प्रेम सप्ताह के जोश में आकर अपना प्रेम लुटाओ बल्कि इन अहसासों को भीतर रूह में उतारो और हर रिश्ते को अपना प्रेम प्रसाद बांटो तो फिर वही सब मिलकर तुम्हारा वो रूहानी रिश्ता जोड़ देंगे... ‘प्रेम’ और क्या हैं... कस्तुरी-सा हमारे भीतर बसा हम ही जो तलाश रहे उसे यहाँ-वहाँ... तो जरा अपने घर से ही इसकी शुरुआत करें... फिर देखे जादू जितना हम देंगे नहीं उससे ज्यादा पायेंगे कि अपनी जड़ों की तरफ लौटना प्रेम को उच्चता प्रदान करता... सिर्फ अहसास हैं ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...:) :) :) !!!                 
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१४ फरवरी २०१७

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