रविवार, 26 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-५७ : “मज़हब के लिये इंसान लड़ता... जबकि, नहीं उससे वज़ूद उसका...!!!”

साथियों... नमस्कार...


भगवान् ने बनाया इंसान और क़ुदरत तो इंसान ने बनाया ‘मज़हब’ जिसके बिना वो जी सकता लेकिन वो हर शय जिनकी वजह से उसका अस्तित्व कायम उनका कोई भी ‘धर्म’ नहीं और वे जीने के लिये सबसे जरुरी इतनी-सी बात नहीं समझता तो उसी को आधार बनाकर रची एक ‘कविता’ जिसे ‘भीलवाड़ा’ से प्रकाशित ‘सौरभ दर्शन’ अख़बार में स्थान दिया गया... आज वही आप सबके समक्ष प्रस्तुत हैं...  

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हवा बोली लहू से,
बोल तेरा मज़हब क्या हैं ?
.....
कुछ देर सोच के बोला वो-

जो तेरा धर्म हैं
वही मेरा हैं
हमें इन बातों से
भला, क्या लेना-देना हैं

करते जो भेद
आदम को जात में
सोचते नहीं कि
सबकी साँसों में तू समाई
सबकी रगों में मैं दौड़ता

एक ही धरती
एक ही आसमान तले
सबका ठिकाना हैं

एक समान अनाज
एक जैसे फल खाकर
सबकी देह बनी हैं

फिर वो किस तरह
एक को दूसरे से जुदा मानते
नाम और जाति से
हर किसी को पहचानते हैं

हटा दो इन सबको
फिर पूछो उनसे यही सवाल
बोल तेरा मज़हब क्या हैं ?

नहीं सूझेगा कोई जवाब
फिर देखना बोलेंगे वो भी वही
जो अभी मैंने तुमसे कहा ।।
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हवा, लहू, जल, प्रकृति ये जीने के लिये वो आवश्यक तत्व हैं जिनकी कमी या अभाव हमारी मृत्यु की वजह बन सकते पर, इनका कोई मजहब नहीं और हर इंसान इनका एक जैसा ही  सेवन करता फिर भी इनसे कुछ नहीं सीखता... काश, हर इंसान इतनी-सी बात समझ जाये कि ‘मज़हब’ से वो नहीं न ही उसका वज़ूद हैं बल्कि इनसे हैं और फिर भी जिसके बिना वो जी नहीं सकता उसे ही गौण समझता और वो ‘मजहब’ जिसके नाम पर वो भेदभाव कर एक-दूसरे की जान लेता उसे प्रथम दर्जे पर रखता... क्यों नहीं उनकी तरह सब एक ही मज़हब ‘इंसानियत’ को ही मानते... :) :) :) !!!  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ फरवरी २०१७

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