शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

सुर-२०१७-३४ : माँ नर्मदा ने हमें दिया जीवन... और, हमने प्रदुषण...!!!

साथियों... नमस्कार...


धर्मग्रंथों में नदियों के साथ धार्मिक महत्ता और आध्यात्मिक दर्शन जोड़ने की वजह शायद, यही थी कि ये जो कुदरत के ढेर सारे वरदान हमें मिले हुये हैं हम इनको पवित्र-पावन बनाकर रखे क्योंकि इसके वजूद से ही हमारा स्वयं का अस्तित्व भी खड़ा हुआ हैं लेकिन इतना सब कुछ जानने और समझने के बाद भी क्या हुआ...? हम एक हाथ से इन नदियों की पूजा करते दूसरे हाथ से इन्हें गंदा भी करते जाते और जब हमारी जान पर बन आती तो फिर इनको स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठाते लेकिन सब कुछ क्षणिक जो कि दिन विशेष से जुड़ा होता और जैसे ही दिन ढलता ये भावना भी अंतर में तिरोहित हो जाती कि अब तो ये रवायत बन गयी हमारी कि जब भी किसी महापुरुष या बलिदानी या देवी-देवता की जयंती आये तो हम बड़े उत्साह से न सिर्फ उसे मनाते बल्कि तरह-तरह के निश्चय भी मन ही मन कर लेते जो फिर अगले साल उसी दिन पुनः याद आते तो सोचते कि कोई बात नहीं जो हुआ सो हुआ ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेय’ और इस तरह फिर कुछ नये व्रत और शपथ के साथ उस दिन का आगाज़ करते और ये सिलसिला आजीवन उसी तरह चलता रहता हैं अंत में फिर पछताते कि इस जीवन में तो कुछ कर न पाए व्यर्थ ही गया लेकिन अगले जनम में जरुर अपने अधूरे काज पूर्ण करेंगे और इस तरह दिनों / सालों  के बाद जन्मों का सिलसिला भी शुरू हो जाता और हालात बद से बदतर होते-होते विनाश की कगार पर पहुंचने लगती सृष्टि लेकिन वो नहीं हो पाता जो सोचा या चाहा था...

क्योंकि किसी भी संकल्प के लिये केवल विचार का मन में आना ही काफी नहीं बल्कि उसे क्रियान्वित कर कार्यरूप में परिणित करने पूर्ण ठोस योजना भी होना जरुरी हैं नहीं तो ऐसे कागज़ी महल तो आये दिन बनते-बिगड़ते ही रहते तो यदि हम वाकई अपने ठाने गये व्रत को पूरा करना चाहते तो फिर अपने स्तर पर बिना ये सोचे कि हमारे अकेले के करने से क्या होगा या अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता टाइप कुतर्क करने की बजाय ठीक उसी तरह काम करना शुरू कर दे जिस तरह एक ‘नन्ही गिलहरी’ ने ‘राम सेतु’ बनने में अपना योगदान दिया ये जानते हुये भी कि उसका श्रम या सहयोग नगण्य ही रहेगा पर, व्यर्थ नहीं जायेगा इस छोटे से विश्वास ने उसे असीम ऊर्जा दी जिससे वो अथक-अनवरत मेहनत करती रही जिसका परिणाम उसके शरीर बनी लकीरों ने दिखाई देता हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी भगवान् श्रीराम के आशीष के रूप में उसकी देह से लिपटा रहता हैं और यदि हम भी ये न सोचे कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा या मैं ही ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या ‘प्रदुषण’ के लिये थोड़े न जिम्मेदार हूँ तो फिर हम भी बड़ा नहीं तो छोटा-सा बदलाव तो ला सकते न एक पेड़ से न जाने कितने लोग को ऑक्सीजन मिले, एक नदी से न जाने कितनों को जीवन मिले यही सोचकर यदि हम अपने हिस्से का कर्तव्य पूरा करे जो हमने प्रकृति से प्राप्त किया उसका ऋण चुकाने का प्रयास करे तो शायद, बहुत कुछ हो सकता वरना, जब कुछ न बचेगा कयामत को तो आना ही हैं पर, ये हमारे हाथ में कि हम उसे कुछ दिन आने से रोक सके सोचियेगा जरुर... तो करने की प्रेरणा मिलेगी

आज ‘नर्मदा जयंती’ हैं याने कि सिर्फ एक नदी की उत्पत्ति का दिवस मात्र नहीं बल्कि एक सभ्यता के विकास का दिन भी हैं जिसमें हमारा योगदान हमें भले न पता हो लेकिन इस नदिया ने हमको क्या दिया और हमने बदले में उसे क्या दिया ये पता होना चाहिये तब अहसास होगा कि हमारी देनदारी तो बाकी ही हैं इन्ही कुछ कारणों से हमारे पूर्वजों ने हर एक पेड़-नदी-भगवान से हमको जोड़ दिया, हमारी जमीन, हमारी भाषा, हमारे देश सबको ‘माता’ का दर्जा दिया यहाँ तक कि उनको लेकर हमारे भीतर भय भी भर दिया क्योंकि वो जानते थे कि ‘भय बिन प्रीति होती नहीं’ तो शायद, इस डर से ही हम उनको सहेजते रहेगे उनकी सुरक्षा का प्रबंध करेंगे लेकिन परिवर्तन की बयार और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमें ये सब बकवास, ओल्ड फैशन और इल-लॉजिकल लगने लगा क्योंकि हमारी आँखों पर पश्चिमी संस्कृति का चश्मा चढने लगा जिसे पहनकर अपने ही लोग, अपना ही देश और अपनी ही परम्पराएँ सब कुछ बेकार ही नहीं बेगाना भी लगने लगा ऐसे में जरुरी कि इस तरह के आयोजनों की सार्थकता याद दिलाने इन्हें सार्वजनिक रूप से मनाया जाया और ये अहसास कराया जाये कि जिस आप हेय दृष्टि से देख रहे ववही आपका ‘आधार’ जिसके दरकने से आपके भी मिटने का अंदेशा तो अब भी वक़त हैं सचेत हो जाओ अपनी प्रकृति के सरंक्षण में थोडा-थोडा सहयोग करो कहीं ऐसा न हो जब वो लेने पर आये तो अपनी तमाम दौलत के बावजूद भी हम कंगाल नजर आये... क्योंकि जिसने हमें दिया जीवन हमने उसे क्या दिया सिवाय प्रदुषण के... हमारा भी फर्ज़ कि ज्यादा नहीं जरा-सा तो ‘रिटर्न’ फाइल करे ‘इनकम टैक्स’ देते उसी तरह उनको भी तनिक उनकी सेवाओं का ‘टैक्स’ दे... भले वो मांगते नहीं उस पर सुविधा ये भी कि कोई रकम नहीं श्रमदान देना बोले तो ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ कि इसका लाभ हमें ही तो मिलना क्या नहीं... सोचे... सोचे... :) :) :) !!!                 
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०३ फरवरी २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: