तन करता रहा
यात्रा
यहां से वहां
जीता रहा
जिंदगी
ढोता रहा
सांसें
लब मुस्कुराते
रहे
पांव चलते रहे
हाथ भी अपना
काम
करते रहे
आंखें पल-पल
तलाशती रही
उम्मीद की किरण
अधीर कान तरसते
रहे
सुनने एक आवाज़
मस्तिष्क
उधेड़-बुन करता रहा
टूटे रिश्तों
के धागों संग
दिल धड़कनों को
भूलकर
संजोता रहा
गुजरे लम्हें
और,
मन अटका रहा
देहरी पर
पार न कर पाया
अब तक
प्रियतम का
द्वार
तन बढ़ गया आगे
मन रह गया कहीं
पीछे
लौटना नामुमकिन
कोशिशें नाकाम
तमाम
क्योंकि,
सुनता नहीं कोई
देते रहो चाहे
जीवन भर
उन बंद दरवाजों
पर दस्तक
कभी-कभी
ऐसे भी जीना
पड़ता हैं
तन कहीं होता
और
मन कहीं
ताउम्र...!!!
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
०२ मई २०१८
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