आज तक
समझ न आया कि
कहाँ रहते हैं
वो लोग ?
जो फिर कहीं के
नहीं रहते
शायद, तन्हाई में
खुद से ही
बातें करते
या शायद,
चिंता की चिता में
रात-दिन सुलगते
रहते
या फिर किसी
पागलखाने में
रोते और
चीखते-चिल्लाते
गोया कि
जीते-जी ही
खुद से जुदा
होना
तिल-तिल मरने
जैसे होता
'मौत' तो वरदान ही होती होगी
ऐसे टूटे-फूटे
लोगों के लिए ॥
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
२१ मई २०१८
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