बुधवार, 14 नवंबर 2018

सुर-२०१८-३१४ : #डबल_इनकम_नो_किड्स #बाल_दिवस_न_लील_ले_कहीं_ये_ज़िद




आत्ममुग्धता और स्वार्थन्धता का ये ऐसा दौर है जहाँ व्यक्ति अपने सिवा किसी को भी सहन नहीं करना चाहता या बोले कि अपनी ज़िन्दगी सिर्फ और सिर्फ अपने लिए अपने हिसाब से जीना चाहता फिर चाहे इसके लिये उसे अपने बच्चों का हक छीनना पड़े या उनके जीवन की बलि देना पड़े उसे परवाह नहीं ।

क्योंकि, #माय_लाइफ_माय_चॉइस के जमाने में ओनली सेक्स ही जरूरत रह गया बच्चे तो किसी प्रायोरिटी लिस्ट में दर्ज ही नहीं और यदि कोई विवाह या शादी का नाम भी ले दे तो ये युवा यूं भड़क जाते जैसे इनके माता-पिता ने इन्हें पैदा नहीं डाउनलोड किया हो तो ये भी अगर, कभी मन हुआ तो कर लेंगे नहीं तो अपनी जिंदगी अपनी तरह से तो जी ही रहे है ।

जिसमें कभी बुढापा या तन्हाई या कभी बच्चों की आवश्यकता महसूस होगी ही नहीं उनकी सारी ज़िन्दगी तो बस, ऑफिस, मॉल, पब या फ्रेंड्स के साथ मस्ती करते हुए गुज़र ही जायेगी ऐसे में बच्चों को पैदा करना, पालना, उनके लिये अपनी खुशियों, अपनी ख्वाहिशों से समझौता करना... नो, नेवर.. कभी नहीं हो सकता एकदम असम्भव है ।

शादी किये बिना ही शरीर की जरूरतें पूरी हो रही और वो सबसे बड़ा बेवकूफ जो कहता कि सेक्स प्रेग्नेंसी के लिए किया जाता है... हाऊ ओल्ड फैशन... और आउट डेटेड बंदा है... जिसे इतना भी नहीं पता कि ये तो देह की डिजायर मात्र है और जैसे भूख लगने पर खाना खाते वैसे ही सेक्स की इच्छा होने पर उसे कर लेते इसमें बच्चा तो परंपरावादियों ने जबरदस्ती घुसेड़ दिया अन्यथा शारीरिक सुख के सिवाय दुनिया में रखा क्या है ।

ऐसे ही हद दर्जे के स्वार्थी लोगों ने DINK - Double Income No Kids जैसी घटिया अवधारणा विकसित की जिसके तहत इन्होंने पश्चिम देशों की देखादेखी महज़ वासना पूर्ति हेतु लिव-इन जैसी स्वच्छाचारी व निरंकुश निकृष्ट परंपरा भी शुरू कर दी जिसका उद्देश्य सिवाय सेक्स के कुछ भी नहीं अन्यथा फ्रेंडशिप या मिलना-जुलना तो इसके बिना भी संभव था ।

लेकिन, इसके माध्यम से कभी भी अपनी मर्जी के अनुसार अपने साथी के साथ सोने की सुविधा हासिल हो गयी जिस पर कानून की मोहर भी लग गई फिर क्या यंगस्टर्स को मानो मुंहमांगी मुराद मिल गयी उस पर सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377, 947 से मुक्त कर लड़के-लड़कियों को हर तरह के सेक्स के लिए आज़ादी दे दी कि जब जिससे मर्जी इश्क़ करो चाहे शादी के पहले या बाद करो कोई पाबंदी नहीं आखिर, इनके लिए जीवन के मायने यही तो रह गये है ।

इस तरह की लाइफ में अपने साथी की आय से दुगुना ऐशो-आराम हासिल करते हुए सब कुछ किया जा सकता तो ऐसे में किड्स की जिम्मेदारी उठाना सिवाय मूर्खता के कुछ न दिखाई देता इन युवाओं को और जो समझाओ तो इनके कुतर्क झेलने तैयार रहो जिसमें ये हर तरह से लिव-इन, गे/लेस्बियन रिलेशनशिप, एडल्ट्री आदि को तर्कसंगत ठहराने हर स्तर पर उतर आयेंगे क्योंकि, जिस तरह सावन के अंधे को सिर्फ हरा ही हरा दिखता वैसे ही सेक्स को तरसती इस न्यू जनरेशन को सिर्फ सेक्स नजर आता तो यही गूगल पर सर्वाधिक सर्च किया जाने वाला शब्द भी और यही इनकी डिमांड भी और यही इनके जीवन का अंतिम लक्ष्य भी है ।

इसलिये इनको पुरानी परंपराएं, विवाह के रीति-रिवाज और पारिवारिक नियम-कायदे सब बंधन लगते जिन्हें इन्होंने अपनी आर्थिक मजबूती से बड़ी मुश्किल से तोड़ा तो फिर से इसमें खुद को क्यों बांधे बल्कि, अपने माता-पिता को छोड़कर अपने लिव-इन पार्टनर बदलते हुए अपने पैसों से खरीदी हर सुख-सुविधा का स्वयं उपभोग करें अब वो पीढ़ी शायद, लिमिटेड स्टॉक में ही शेष हो जिनको अब भी नैतिक मूल्य या सामाजिक दायरों में सिमटकर रहना पसंद हो अपने इन पुरातन संस्कारों से सरोकार हो इनकी महत्ता का ज्ञान हो ।

ये तो भाग्यशाली थे कि इनके माता-पिता की सोच का दायरा इतना संकीर्ण न था तो ये दुनिया में आ गये पर इनकी आधुनिकतम सोच तो खुद से आगे देख ही न पाती इनके सामने ये मिसाल देना कि वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाता और नदियां भी अपना जल स्वयं नहीं पीती खुद को ही निम्नतम दर्शाता कि किस बाबा आदम के जमाने मे जी रहे हम जो आज भी परोपकार, परहित या अपनी भारतीय संस्कृति की बात करते है

हम आज भी ये सोचते कि, "किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है" जबकि, ये लोग "जीने के है चार दिन, बाकी है बेकार दिन... जाये, जाये जवानी फिर न आये" तो उसका जी भरकर उपयोग कर लेना चाहते फिर भले बाद में पछताना ही क्यों न पड़े पर मलाल तो न रहेगा कि हमारी जवानी बच्चों को पालने उनके सपने पूरे करने में बर्बाद हो गयी ।

धन्य है ये 5G तकनीक को मात करते युवा लोगों की परमाणु बम जैसी मारक सोच जिसके बाद न कोई इनका नाम लेवा होगा और न ही ये निकृष्ट बचेंगे उसके बाद की नई दुनिया किसी बच्चे की मुस्कान से रोशन होगी यही उम्मीद बाल दिवस को बचा सकती है अन्यथा ये भी बस, अपने अंतिम दौर में है ।

फिर भी आने वाले सुनहरे कल की आशावादी तस्वीर में खिलखिलाते नजर आते बच्चों के नाम बाल-दिवस का ये पैगाम और जो अब भी इसकी सार्थकता समझते उनको शुभकामनाएं... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१४ नवंबर २०१८

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