बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

सुर-२०१९-५१ : #नामवर_सिंह_का_न_होना #साहित्य_से_आलोचना_का_खोना




हिन्दी साहित्य की हर विधा जिसके बिना अधूरी वो है ‘आलोचना’ और जिसके बिना सम्पूर्ण साहित्य जगत सूना वो है ‘नामवर सिंह’ अपने नाम के अनुरूप आदमकद जिनका व्यक्तित्व कि उनका न होना आज हर कोई बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा है ‘ट्विटर’ हो या ‘फेसबुक’ या फिर ‘प्रिंट मीडिया’ हर जगह वही दिखाई दे रहे जो दर्शाता कि किसी व्यक्ति की अहमियत उसके जाने के बाद ही समझ आती और उसका वास्तविक मूल्यांकन भी तभी होता जब वो अपनी जगह खाली कर देता है गोया कि न होने का ये अहसास उसके होने को परिपूर्णता देता है यही वो समय होता जब पता चलता कि जीवन भर का हासिल क्या था जिसके लिये सारा जीवन बीता दिया जो जीवित होते पता न चलता

क्योंकि, जीते-जी हम उस भाव को अनुभूत नहीं कर सकते जो रिक्तता से उत्पन्न होता इसलिये किसी भी महान व्यक्ति की उपलब्धि वो नहीं जो उसने जीते-जी प्राप्त की बल्कि, वो होती जो बाद मरने के उसके नाम पर दर्ज होती है क्योंकि, यही वर्तमान व भविष्य में उसकी छवि निर्मित करेगा जिसमें वो सभी बातें दरकिनार कर दी जायेंगी जिनकी वजह से कभी उसका नाम विवादों में रहा हो ऐसा कोई नामचीन नहीं जिसके हिस्से में चंद ऐसे अप्रिय प्रसंग न जुड़े हो वही तो होते जो उसे उसके क्षेत्र के बाहर भी या बोले तो सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसकी पहचान समाज के उस वर्ग से भी करवाते जो अब उनसे नितान्त अपरिचित था

यूँ भी जिस कार्यक्षेत्र में वो सक्रिय वहां तो उसको जानने वालों की कमी नहीं होती अगर, उसका काम सामान्य से बढ़कर या हटकर होता मगर, यही जब वह उस घेरे से भी बाहर आ जाता तो फिर उसको वैश्विक पटल पर एक मुकाम हासिल होता जैसा कि ‘नामवर सिंह’ के साथ भी हुआ जिनकी ‘आलोचना’ के बगैर हर लेखन उतना ही बेस्वाद माना जाता जैसे नमक के बिना कोई भोज्य या चीनी के बिना कोई मिठाई याने कि उनका लिखना या बोलना किसी भी कलमकार के लेखन को साहित्य का दर्जा दिलवाता था उनके सम्पादन में ‘आलोचना’ में किसी लेखक का छप जाना समझो उसके कृतित्व और व्यक्तित्व पर साहित्य की स्वीकृति की मोहर लग जाना होता था जिसके लिये हर कोई तरसता था        

वे साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र थे जिनकी रौशनी से न जाने कितने सितारे जगमगा उठे और न जाने कितनों को उन्होंने अपने निकट पनाह दी कि उनके ओजमयी प्रभावी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भी लोग उनसे जुड़ना चाहते थे उस पर उनका अपरिमित ज्ञान व वक्तृता की साफगोई और हिन्दी भाषा पर उनकी जबर्दस्त पकड़ जिनसे उन्हें अपने शिष्यों का प्रिय बना दिया था यहाँ तक कि जे.एन.यू. में हिंदी विभाग की स्थापना का श्री उनको ही दिया जाता है और वे खुद साहित्य के युगपुरुष ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी’ के सबसे प्रिय शिष्य थे जिन्होंने अपने गुरुदेव को अपनी रचनाओं व साहित्य की सतत सेवा के माध्यम से सच्ची श्रद्धांजलि दी और  प्रगतिशील साहित्य की बागडोर को संत तक बखूबी संभाले रखा था

28 जुलाई, 1926 को बनारस जिले की चंदौली तहसील, जो अब जिला बन गया है, के जीयनपुर गांव में जन्मे हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार और लिक से हटकर आलोचना से अपनी पहचान बनाने वाले नाम के अनुरूप नामवर कल १९ फरवरी की रात हम सबको छोड़कर चले गये उम्र के इस मोड़ पर जिसे जीवन संध्या कहते वो क्या सोचते होंगे ये शायद हम उनकी लिखी इन पंक्तियों से समझ सके...

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दिन बीता,
पर नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
नहीं बीतती,
नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
ढलता-ढलता दिन
दृग की कोरों से ढुलक न पाया
मुक्त कुन्तले !
व्योम मौन मुझ पर तुम-सा ही छाया
मन में निशि है
किन्तु नयन से
नहीं बीतती साँझ
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वाकई जीवन की साँझ बड़ा विकल करती, बड़ी कठिनाई से व्यतीत होती पर, जब उसके बाद एक ख़ामोशी छाती, घनघोर अंधियारा आता जो कभी न खत्म होता तो पता चलता कि यही सच है जिसे हम सबको सहन करना है

नामवर सिंह अपने बारे में कहा करते थे कि, "कहने को तो मैं भी प्रेमचंद की तरह कह सकता हूं कि मेरा जीवन सरल सपाट है। उसमें न ऊंचे पहाड़ हैं, न घाटियां हैं। वह समतल मैदान है। लेकिन औरों की तरह मैं भी जानता हूं कि प्रेमचंद का जीवन सरल सपाट नहीं था। अपने जीवन के बारे में भी मैं नहीं कह सकता कि यह सरल सपाट है। भले ही इसमें बड़े ऊंचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियां न हों। मैंने जिन्दगी में बहुत जोखिम न उठाए हों, लेकिन जीवन सपाट न रहा” ।

ऐसे कठिन जीवन को कल अलविदा कहकर वे हम सबके बीच से चले जरुर गये लेकिन, अपनी जो विरासत पीछे छोड़ गये वही हमारा मार्गदर्शन करेगी उनकी सदेह क्षति को अब इस विदेह से ही हमें महसूसना होगा... इन्हीं शब्दों के साथ साहित्य के इस सशक्त हस्ताक्षर को भावपूर्ण श्रद्धांजलि... !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
फरवरी २०, २०१९

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