“मातृभाषाओं के
अलावा अगर हम किसी भी दूसरी भाषा में शिक्षा देते है तो पचासों वर्षों के बाद भी
हमारी बहुत बड़ी आबादी निरक्षर और मूढ़ बनी रहेगी क्योंकि, किसी समाज का निम्न वर्ग
उन्नति करेगा, तभी पूरा समाज उन्नति करेगा और उनके उत्थान का यह कार्य किसी विदेशी
भाषा के माध्यम से संभव नहीं है” ।
--- महान
विचारक बहुभाषविद साहित्यकार ‘राहुल सांकृत्यायन’
इस दुनिया के
रंगमंच में 196 देश है जिनमें लगभग 7097 भाषाओं में असंख्य लोगों के द्वारा सम्वाद
कायम किया जाता है जिसमें हमारा देश भी शामिल है लेकिन, यदि हम सिर्फ अपने देश की
बात करें तो जुलाई 2018 के प्रथम सप्ताह में जारी जनगणना के नवीनतम विश्लेषण के
अनुसार, भारत में 19,500 से अधिक भाषाएँ या बोलियाँ मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं । ये
एक ऐसी संख्या जो विश्वपटल पर हमारी भाषा की ताकत को दिखाती मगर, अफ़सोस के साथ
कहना पड़ता है कि इसके बावजूद भी हम अपनी ही भाषा व बोलियों पर गर्व करने की बजाय
उसे ही विलुप्ति की कगार पर पहुंचाने में लगे है ।
जिसकी एक बहुत बड़ी वजह ये ‘तकनीक’ या ‘इन्टरनेट’ ही है जहाँ पर ‘हिन्दी’ दिखाई तो
हर जगह दे रही मगर, विडम्बना कि ये भी अब ‘देवनागरी’ में नहीं ‘रोमन लिपि’ में
लिखी जाती जिसकी वजह से हम बोलियाँ तो छोड़ो अपनी राष्ट्रभाषा को भी खोने की दिशा
में अग्रसर है ।
गौरतलब है कि सम्पूर्ण
विश्व में एक हमारा ही बहुरंगी देश है जहाँ इतनी सारी मातृभाषायें बोली जाती है कि
एक-एक राज्य में ही कई-कई जुबान इस्तेमाल की जाती है यही नहीं कदम-कदम पर भी बात
करने का लहजा और बोली बदल जाती है । जो इसकी विविधता को दर्शाता जिसकी वजह से ये
पूरी दुनिया के मानचित्र में अलग नजर आता है और यदि हम इस देश की भाषा ‘हिन्दी’ की
बात करें तो वह भी सकल ब्रम्हांड में चीनी ‘मंदारिन’ व ‘अंग्रेजी’ बाद तीसरे क्रम
में प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा है । ऐसे में हमारा
प्रयास होना था कि हम इसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान देते पर, जिस तरह से हम विदेशी
भाषाओँ के के दीवाने बनते जा रहे लगता कि ये इस क्रम से कहीं निचले पायदान पर न आ
गिरे क्योंकि, दिनों-दिन लेखन पेपरलेस होते-होते डिजिटल होता जा रहा है ।
ऐसी
परिस्थितियों में हमें ये कोशिश करना चाहिये कि हम अपनी भाषाओँ को उसकी लिपि में
ही लिखे और कागज-कलम पर भी अपने हाथ आजमाते रहे यही ऐसी माध्यम जो उसे उसके
वास्तविक स्वरुप में जीवंत बनाये रख सकता है ।
अपनी शिक्षा प्रणाली में हम देख रहे कि क्लासेस अब स्मार्ट व डिजिटल होती जा रही
ऐसे में ज़ाहिर कि आने वाले समय में जहाँ अब तक स्लेट-पेन्सिल से लिखाई-पढ़ाई हो रही
वहां भी ये खर पहुंचेगी जो भाषा के लिये एक खतरा है ।
कहाँ तो हमरे अनेक विद्वान, मनीषियों व वैज्ञानिकों तक का ये विचार था कि शिक्षा
के लिये मातृभाषा को जरिया बनाये जाये और कहाँ अब हमारी भाषा तक पर संकट के बादल
मंडरा रहे है ।
भारतीय
वैज्ञानिक सी.वी. श्रीनाथ शास्त्री के अनुभव के अनुसार, “अंग्रेजी माध्यम से
इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से
पढ़े छात्र, अधिक वैज्ञानिक
अनुसंधान करते हैं” । राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र की डॉ नन्दिनी सिंह के
अध्ययन व अनुसंधान के अनुसार, “अंग्रेजी की
पढ़ाई से मस्तिष्क का एक ही हिस्सा सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी की पढ़ाई से मस्तिष्क के दोनों भाग सक्रिय होते हैं” । सर
आइजेक पिटमैन ने कहा है कि, “संसार में यदि कोई सर्वांग पूर्ण लिपि है तो वह
देवनागरी ही है” । पूर्व राष्ट्रपति डॉ
अब्दुल कलाम तक ने स्वयं के अनुभव के आधार पर कहा था कि ‘‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की” इसी
प्रकार विश्व कवि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने भो कहा कि, ‘‘यदि विज्ञान को जन-सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की
शिक्षा दी जानी चाहिए” । यहाँ तक कि महात्मा गांधी का विचार था कि, “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार
डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वह सृजन के लायक नहीं रहे” ।
यदि हम विदेशों
की बात करें तो आज दुनिया के लगभग 170 देशों में किसी न किसी रूप में हिन्दी
पढ़ायी जा रही है यहाँ तक कि विश्व के 32 से अधिक देशों के विश्वविद्यालयों में
संस्कृत भी पढ़ाई जा रही है और इंग्लैण्ड के सेंट जेम्स विद्यालय में 6 वर्ष तक
संस्कृत पढ़ना अनिवार्य है । ऐसे में आज का दिन हमें वाकई वैश्विक स्तर पर
अपनी भाषा व बोलियों पर गर्व से सर ऊंचा करने का अवसर देता है क्योंकि, इस मामले
में हम सबके बीच में सबसे अधिक समृद्ध है ।
सबको ‘अंतर्राष्ट्रीय
मातृभाषा दिवस’ की <3 से शुभकामनायें...!!!
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© ® सुश्री इंदु
सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
फरवरी २१, २०१९
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