ये ‘वादा’
ही तो था जो
किया था ‘भगवान’ ने
अपने भक्तों से कि
जब-जब धर्म की हानि होगी
वो इस धरा पर आयेंगे
और हर युग में उसे निभाया भी ।
.....
तभी तो...
ये ‘कलयुग’ भी
इतना अन्याय, अत्याचार
और ज़ुल्मों-सितम सहकर भी
खड़ा हुआ हैं एक ही टांग पर और....
कर रहा इंतजार ‘कल्कि अवतार’ का अब भी ।।
--------------------------------------------------------●●●
___//\\___
मित्रों...,
पश्चिम देशों से आयातित उत्सवों का अनुकरण करने वाली इस आधुनिक पीढ़ी द्वारा
मनाये जा रहे ‘प्रेम सप्ताह’ में आज का दिन ‘प्रॉमिस डे’ कहलाता हैं और
इसलिये सभी तथाकथित प्रेमी-प्रेमिका जोश में आकर एक-दूसरे से कोई ‘वादा’ करते हैं । जिसके
साथ उसे पूरा करने का कोई ‘अनुबंध-पत्र’ नहीं होता क्योंकि जब भी
बात दिल की और उससे बने रिश्तों की होती हैं तो उसमें किसी भी तरह का कोई भी ऐसा
दस्तावेज नहीं होता जिसमें उस रिश्ते के लिये तय किये गये इकरारों का उल्लेख हो
जिससे कि उसे प्रमाणित किया जा सके वो तो बस, आपसी स्नेह और विश्वास पर
स्वतः ही बनने वाला एक निःस्वार्थ संबंध होता हैं । तभी तो हमारे यहाँ जन्म से
बनने वाले सारे के सारे पारिवारिक संबंध किसी भी ऐसे लिखित नियमों के तहत नहीं
बल्कि पारस्परिक तालमेल और सुझ-बूझ से चलते हैं और इसी प्रकार कुछ ऐसे भी रिश्ते
होते हैं जो हम ख़ुद बनाते हैं तो उनमें भी किसी तरह का कोई करारनामा नहीं बनवाते
सिर्फ़ अपने मन की बात को सुनते-समझते हैं तभी तो यहाँ बनाये गये रिश्ते
जन्म-जन्मांतर तक चलते हैं क्योंकि हम मनाते हैं कि हर रिश्ते की बुनियाद प्रेम और
एक-दूसरे पर विश्वास होता हैं । अब चूँकि वैश्वीकरण और नेटवर्क के चलते सारी दुनिया
सिमटकर एक छोटे-से स्क्रीन पर आ गई हैं तो ‘न्यू जनरेशन’ को अपनी संस्कृति की
जगह उनके चकाचौंध करने वाले और उपर से एकदम ‘स्मार्ट’ नज़र आने वाले वो
दिखाऊ ‘फैशनेबल कस्टम’ बड़े अच्छे लगते हैं लेकिन
वो ये भूल जाता हैं कि हर देश के अपने रीति-रिवाज़ और परम्परायें होती हैं जो उनकी
प्रकृति और वातावरण के अनुसार निर्धारित होती हैं और जरुर नहीं कि वो हम पर भी
लागू हो लेकिन जब किसी ने नकल करने की ठान ली हो तो फिर अक्ल का प्रयोग वर्जित
समझा जाता हैं इसलिये बस, बिना दिमाग का उपयोग किये अपनी सुविधा के अनुसार अपनी ‘लाइफ’ को ‘एन्जॉय’ किया जा रहा हैं ये
भूलकर कि इस देश में जीवन को साधना माना जाता हैं ।
आज हर जगह ‘लव पैकेज’ के इस ‘प्रोमिस डे’ को मनाया जा रहा सब
एक-दूसरे को इस दिन की बधाई दे रहे पर कोई किसी को ये नहीं बता रहा कि वो कौन-सा ‘प्रोमिस’ कर रहा हैं चूँकि
ऐसा कोई दिन होता हैं और उसे मनाना हैं तो उसकी शुभकामना देना भी तो जरूरी हैं तो
दिए जा रहे हैं अब सब कुछ महज़ एक दिन का दिखावा बनता जा रहा हैं । दूसरे देशों में
ऐसा इसलिये किया जाता कि उनके पास समय नहीं इसलिये वो दिन विशेष के नाम पर कुछ समय
निकालकर एक-दूसरे से बात करते हैं कोई आयोजन करते हैं इस तरह ये एक बहाना बन जाता
हैं अपनी दिनचर्या और आपसी रिश्तों में आई एकरसता को भंग कर उसमें नवीनता लाने का
पर, सिर्फ़ इसलिये उसे मनाना कि खुद को भेड़चाल का हिस्सा बताना
हैं तो फिर किसी तरह के विचार की आवश्यकता नहीं । लेकिन यदि इसके साथ इसमें
थोड़ी-सा हिन्दुस्तानी रंग भी मिला जाये तो फिर ये सबको अपना सा लगेगा बिल्कुल उसी
तरह जैसे कि चायनीज़ नूडल्स, पिज़्ज़ा, बर्गर, पास्ता आदि में ‘इंडियन तड़का’ देकर उसे अपने
स्टाइल में खाते हैं यदि वैसा कुछ इन दिनों में भी किया जाये तो ये सब धीरे-धीरे
स्थायी होते जायेंगे वरना क्षणिक आवेश में सबको देखकर इसे मनाते रहने से ये केवल
एक दिन का पर्व रह जायेगा और इसमें किये गये वादे-कस्में भी सब रात के साथ अंधकार
में विलीन होकर गायब हो जायेंगे । यदि लोग इस तरह के किसी दिन को मना रहे हैं तो
उसकी ठोस आधारशिला भी होना चाहिये जिसके बिना ये सब लंबे समय तक नहीं टिक पायेंगे
और हमारे बुद्धू हारकर फिर घर लौट आयेंगे ये उम्मीद नहीं विश्वास हैं क्योंकि जड़ें
हमारे संस्कारों की गहरी हैं इसलिये जिन्हें लगता हैं कि हमारे बच्चे भारतीय
संस्कृति भूल रहे वो इत्मीनान रखे कि इस देश की अपनी गरिमा अपनी पहचान और गौरवशाली
इतिहास रहा रहा हैं जहाँ न जाने कितने विदेशी आये गये पर उसने अपनी आत्मा को
अक्षुण रखा हैं और ऐसे आयातित पर्व भी बस, चंद दिन के मेहमां रहेंगे
फिर जहाज़ का पंछी वापस उसी पर आकर बैठेगा तो जब तक उड़ रहा हैं उसे भी उड़ान का आनंद
लेने दिया जाये बस, बड़ों को तो नज़र रखनी हैं कि ये छोटे कहीं इस भीड़-भाड़ में खो
न जाये इसलिये हम इस श्रृंखला के माध्यम से ये भी जताना चाहते हैं कि जो हर साल इस
दिन के आगमन पर हो-हल्ला मचता हैं वो इसे बढ़ावा भी ही दे रहा हैं जबकि इस पर
ख़ामोशी से नज़र रखकर और सार्थक तरीके से उन्हें इसकी निस्सारता का बोध कराने से वो
संदेश को समझेंगे ।
हम भी यदि इस दिन को मनाकर एक-दुसरे से कोई वचन दे और फिर साल भर उसे निभाकर
अगले साल कोई नया वादा करें तो कोई बुराई तो नहीं लेकिन आज करें और कल भूल जाए तो
फिर इनका कोई औचित्य नहीं... वादे तो हर रिश्ते में होते हैं कुछ लिखित-अलिखित तो
कुछ मौखिक या अबोले से जो दो अनजान लोगों को एक-दूसरे से आजीवन बांधे रखते हैं और
जिनके टूटते ही वो नाज़ुक-सा बंधन भी टूट जाता हैं... इसलिये सिर्फ़ प्रेम के अदृश्य
धागों से दो लोग बंधे रहे तो बिना किसी
वादे के भी वो ताउम्र जुड़े रहते हैं जहाँ सिर्फ हाथों में हाथ लेकर आँखों में आखें
डालकर देखने भर से जन्मों पुरानी धुंधली कहानियां भी स्मृति के पटल पर उभर आती हैं
न जाने किस जन्म का किया वादा कोई कब और किस तरह किसी और जन्म में पूरा करता हैं ये होती हैं उस वादे की शिद्दत
जो करते ही पूर्णता का मार्ग भी ढूंढ लेता हैं वरना यहाँ इतनी अमर प्रेम-कथायें न
होती... तो फिर ‘प्रॉमिस’ करें नहीं निभाये भी... और
धीरज धरकर करें इंतजार भी... रखें अपने रिश्ते पर विश्वास भी... फिर देखें कैसे
आता हैं निखार भी... :) :) :) !!!
____________________________________________________
११ फरवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
●--------------●------------●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें