सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

सुर-४७ : "हिंदी सिनेमा के जनक... दादा साहब फाल्के !!!"


३ मई १९१३
साकार हुआ सिनेमा
पितामह 'दादा साहब फाल्के'
बन गये भारतीय फिल्मों की माँ
ऐसे मिला हमको मनोरंजन का सामां ।।
----------------------------------------●●●

___//\\___ 

मित्रों...,

आज के समय में भी अधिकांश भारतीयों का मन बहलाव का प्रथम साधन फ़िल्मही हैं जिसने उसे एक बहुत बड़े व्यवसाय में बदल दिया और धीरे-धीरे फिल्मों का साम्राज्य बॉलीवुडस्थापित हो गया जो आज विदेशों में भी अपना परचम लहरा कर लोगों को अपना दीवाना बना रहा हैं लेकिन जब हम सब हिंदी सिने जगत का इतिहास पढ़ते हैं तो पता चलता हैं कि जो सब कुछ आज बेहद सरल-सहज नज़र आता हैं एक वक़्त उसकी कल्पना भी मुश्किल थी । आज से लगभग सौ बरस पहले ये सब सोचना भी मुमकिन नहीं था तब ३० अप्रैल, १८७० नासिक के निकट 'त्र्यंबकेश्वर' में पैदा होने वाले धुन्दीराज गोविंद फाल्के’ (दादा साहब फाल्के) ने सन १९१० में एक दिन लाईफ़ आफ़ क्राईस्टनामक एक फ़िल्म देखी जिसने उनके सृजनात्मक मन को बेहद झंझोड़ा और उन्होंने सोचा कि हमारे देश के सभी धार्मिक व पौराणिक चरित्रों को भी यदि इसी तरह से दिखाना मुमकिन हो जाये तो कितना अच्छा हो और बस, उस दिन उन्होंने इस तरह की चलती-फिरती तस्वीरों के चलचित्र बनाने का विचार मन में न सिर्फ बना लिया बल्कि उसके लिये प्रयास भी शुरू कर दिये । चूँकि उस समय हमारे यहाँ इस कला को सीखने समझने और बनाने की तकनीक उपलब्ध मौजूद नहीं थी अतः इस विषय का शोध करने वो लंदनतक गये क्योंकि उन्होंने अब इस ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया था । आख़िरकार उनकी लगातार की कोशिशों ने उनका साथ दिया और इस तरह ०३ मई १९१३ को वो दिन आ ही गया जब मुंबई के 'कोरोनेशन थिएटर' में दर्शकों के समक्ष इस देश की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्रके रूप में परदे पर चलती-फिरती नज़र आई और वो शख्स अपने इस जुनून वास्तविकता का जामा पहनाने की वजह से बन गया हिंदी सिनेमा का जनकऔर इस तरह हम सबको अपने मनोरंजन के लिये सिनेमानामक माध्यम मिला ।

इस पहली फिल्म के साथ बड़ा ही रोचक किस्सा जुड़ा हुआ हैं जिसे पढ़कर न सिर्फ उस समय की वस्तुस्थिति बल्कि अपने लोगों के रहन-सहन और परम्पराओं की भी जानकारी मिलती हैं क्योंकि जब उन्होंने इसे बनाने की पूरी तैयारियां कर ली तो राजा हरिश्चंद्रमें तारामतिकी भूमिका के लिये महिला अभिनेत्री की आवश्यकता महसूस हुई और फिर  उन्होंने तलाश शुरू की इश्तहार भी छपवाये जिसका असर क्या हुआ उसे जानकार आपको बड़ी हैरत होगी कि उस वक़्त की कोई भी महिला इसे निभाने के लिये सामने नहीं आई जिससे उन्हें निराशा हुई । यहाँ तक कि उन्होंने फिर नृत्य करने वाली कोठे की बाइयों तक से संपर्क किया पर वे तक भी इसके लिये राज़ी नहीं हुई जिससे हम सबको ये ज्ञात होता हैं कि इस देश में ही एक वक़्त ऐसा भी था कि फिल्मों में काम करना खराब माना जाता था और उच्च वर्ग या प्रतिष्ठित कुल-घराने की औरतों का इसमें काम करना कल्पनातीत था जबकि आज हर समाज और वर्ग की लडकियों का एक ही ख़्वाब होता हैं कि वो किसी तरह सपनों की नगरी मुंबई जाकर हीरोइन बन पर्दे पर नज़र आये । ऐसे समय में उनकी उस फिल्म में बड़ी मुश्किल से काम करने को सहमत हुये एक पुरुष ने इस स्त्री किरदार को पर्दे पर जीवंत किया सच, जब हम इनकी कहानी पढ़े तो जानते हैं कि इतने कठिन दौर में भी उस आदमी ने अपने जज्बे को कायम रखा और आने वाली पीढ़ी को ये जादुई कला विरासत में सौंप गये जो आज इस देश की पहचान बन चुका हैं और हमारे कलाकार लोगों के आदर्श जबकि उस समय में दादा साहब ने केवल पौराणिक चरित्रों की कहानी को ही अपनी फिल्मों का विषय बनाया और सभी फिल्मों का निर्माण अपनी जन्मस्थली नासिक में हिन्दुस्तान फ़िल्म कंपनीकी स्थापना कर स्वयं ही किया जिनकी अनुमानित संख्या लगभग १२५ मानी जाती हैं ।

इसके बाद उन्होंने अपनी आगामी फिल्मों जैसे कि 'मोहनी भस्मासुर' में नवीनतम तकनीकों  जैसे कि स्पेशल इफ़ेक्टअर्थात विशेष प्रभाव और ट्रीक फ़ोटोग्राफ़ीका प्रयोग उस वक्त ही शुरू कर दिया जिसे  कि हम आजकल की फिल्मों में और अधिक प्रभावशाली तरीके से कंप्यूटर की मदद से देखते हैं । उनके इस सतत कर्म ने हिंदी सिनेमा के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कर दिया और उन्हें 'पितामह' का दर्जा दिया गया यही कारण हैं कि आज सिने जगत में राष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च  पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवार्डमाना जाता हैं जिसे कि उनकी जन्मशती वर्ष पर प्रारंभ किया गया जो फ़िल्मी दुनिया में अपने अभूतपूर्व योगदान के लिये प्रतिवर्ष दिया जाता हैं और जिसे पाने की ख्वाहिश हर कलाकार करता हैं । अपना अंतिम समय उन्होंने नासिक में ही बिताया और १६ फ़रवरी, १९४४ को नासिक में उनका देहांत हो गया लेकिन अपने जादुई करिश्मे और अविस्मर्णीय कृतित्व और सृजन के लिये वे सदैव याद किये जायेंगे... ये बॉलीवुडकभी भी नहीं बनता यदि वो शख्स इस धरा पर नहीं आया होता... तो आज हम सब हमारे मनोरंजन का इंतजाम करने वाली उस हस्ती को भला कैसे न याद करें... कोटि-कोटि प्रणाम उनको जो अपनी मेहनत-लगन से उन्होंने इस असाध्य काज को पूरा किया... हम सबको रुपहले पर्दे पर चित्रों का जीता-जागता संसार दिया... :) :) :) !!!
____________________________________________________
१६ फरवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
●--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: