बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

सुर-४९ : "आज आया जन्मदिवस... 'रामकृष्ण परमहंस'... !!!"

जीवनी
महापुरुषों की
होती पारसमणि
जो भी इनको पढ़ता
वो ख़ुद भी कुंदन बनता ।
.....
आदर्श
बनाकर इनको
जीवन बना लो सुगम
कितना भी कठिन हो पथ
अपनाकर उनके सूत्र न रहेगा दुर्गम ॥
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मित्रों...,

शायद ही इस देश और यदि विदेश भी कहे तो अतिशयोक्ति न होगी कि कोई भी ऐसा हो जिसने स्वामी विवेकानंदका नाम तो सुना हो लेकिन उनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंससे परिचित न हो जिसने एक लक्ष्यविहीन भटकते युवा नरेंद्रको एकाएक अखिल ब्रम्हांड के हृदयतल में एक अद्वितीय व्यक्तित्व और महान प्रेरक के रूप में विराजित कर दिया और आज तक उनका वो कद या मूर्ति अपने स्थान से न तो विचलित हुई हैं न ही उसमें किसी तरह की कोई कमी आई हैं बल्कि यूँ कहे कि वो दिनों दिन समय के साथ और भी अधिक ऊँचाई पर स्थापित हो गई हैं । स्वामीऔर परमहंसतो एक सिक्के के दो पहलू या कहे कि एक ही तस्वीर के नेगेटिवऔर पॉजिटिवहैं, जहाँ गुरुवर नरेंद्रके दृश्यमान चरित्र में परिदृश्य की तरह उपस्थित रहते हैं और इस तरह वो एक सच्चे गुरु की तरह अपने शिष्य के साथ इस तरह एकाकार हो गये कि उसकी देह तो स्वामीकी हैं मगर, छाया देखें तो रामकृष्णनज़र आते हैं और इस तरह स्वामीजीअपने गुरु के बिना आधे-अधूरे नज़र आते हैं क्योंकि जब तक उनकी मुलाकात इस पारसमणिसे न हुई थी वो सिर्फ़ एक अनगढ़ पत्थर थे जिसे गुरु ने कसौटी पर कसकर न सिर्फ कुंदन बल्कि तराशकर कोहिनूरमें परिवर्तित कर दिया और फिर उसकी चमक ने सारी दुनिया को अपने ज्ञान और दर्शन से ऐसा चकाचौंध किया कि आज तलक हम उसके दिखाये पथ पर उसके ही ज्ञानालोक का दंड पकड़कर उनके आदर्शों का अनुगमन कर रहे हैं ।

ये और बात हैं कि कुछ युवाजन अभी भी अपने ध्येय और मार्ग से उसी तरह अपरिचित हैं जैसे कि कभी नरेंद्रभी थे लेकिन जिस दिन उनको अपने गुरुदेव का साथ मिल गया बस, उसी दिन उनका भविष्य तय हो गया ऐसे ही यदि हम सबको भी सच्चे पथप्रदर्शक की संगत मिल जाये तो फिर हम भी जीवन के उस सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं जहाँ पर नरेंद्रअपने गुरु की कृपा से बड़ी सहजता से चले गये । जी हाँ, सिर्फ एक स्पर्श उस पारसमणिका हुआ था और अनायास ही नरेंद्रका संपूर्ण जीवन बदल गया जब उनकी देह में उस दिव्यात्मा की अद्भुत तरंगों ने प्रवेश किया फिर वो साधारण इंसान न रहे उसी पल एक युवक से तुरंत एक सन्यासीबन गये । इनके जीवन-चरित्र पढ़े तो हमें बड़ी ही अद्भुत और विस्मय करने वाली बातें पता चलती हैं जैसे कि रामकृष्णका जन्म १८ फरवरी १८३६ में पश्चिम बंगाल के हुगली ज़िले में कामारपुकुरनामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में हुआ था  और उसके ठीक ३० साल बाद उसी बंगभूमि पर १८६३ में नरेंद्रने जनम लिया हैं न बड़ा ही अद्भुत संयोग एक ही धरा पर कुछ ही अंतराल से एक समान कुल में गुरु-शिष्य का अवतरित होना । मुझे ये बात बड़ी ही विचित्र और रोचक लगती हैं कि परमहंसवय में अपने शिष्य से अधिक बड़े नहीं थे लेकिन उन्होंने उस समय-सीमा में इतना ज्ञान अर्जित कर लिया कि जब नरेंद्रयुवा होकर उनसे मिले तो उन्होंने वो सारा का सारा महासागर उनको दे दिया क्योंकि उन्हें ये आभास हो गया था कि अपनी शारीरिक दुर्बलता और अस्वस्थता की वजह से वो उतनी क्षमता और कुशलता से समस्त विश्व को वो संदेश नहीं दे पायेंगे अतः वो भी अपने लिये एक सर्वोत्तम छात्र की तलाश कर रहे थे जिससे पता चलता हैं कि जिस तरह एक शिष्य को आदर्श गुरु की जरूरत होती हैं उसी तरह गुरु को भी आदर्श शिष्य की और जब इन दोनों का संगम होता हैं तो फिर इतिहास अपने आप बन जाता हैं ।

रामकृष्ण परमहंसका जीवन-चरित हम सबको सर्वशक्तिमान ईश्वर के होने का प्रमाणयुक्त  परिक्षण भी प्रस्तुत करता हैं एक ऐसी अदृश्य शक्ति जिस पर सबको अमूमन अविश्वास होता हैं क्योंकि जो आस्था और अनुभूति का विषय हैं उसे तर्कों और विज्ञान से समझने में बुद्धि मात खा जाती हैं लेकिन बचपन से ही रामकृष्णको परम विश्वास था कि भगवान होते हैं और उनको देखा भी जा सकता हैं...  उनकी ये विचारधारा इतनी गहरी थी कि उन्होंने प्रभु के दर्शन के लिये कठोर तप किया और एक मित्र की तरह उनको प्राप्त भी किया और ये भी कहा कि कोई भी अपने जीवन में भगवान को नहीं पाना चाहता कोई उनको देखने की अभिलाषा नहीं रखता बल्कि सब उनके सामने अपने-अपने दुखों का रोना रोते रहते हैं इसलिये वो सिर्फ उनको ही दर्शन देते हैं जिनके मन में उनको प्रत्यक्ष देखने की मनोकामना होती हैं... तभी तो जगतजननी माँ कालीउनके पुकारने पर उसी तरह दौड़ी चली आती हैं जैसे किसी बच्चे के पुकारने पर उसकी माँ चली आती हैं ऐसा कोई और उदहारण नहीं मिलता जो बताये कि जहाँ भक्त-भगवान के मध्य इतना विलक्षण रिश्ता कायम हो... तो आज रामकृष्ण परमहंस दिवसपर उनको ये शब्दों से भरी भावांजलि... :) :) :) !!!  
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१८ फरवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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