गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

सुर-५७ : "देश की धरोहर... वीर सावरकर...!!!"

ये धरा
ने भूलेगी
अपने सपूतों का
समर्पण और बलिदान
जिन्होंने वतन की खातिर
कर दिया अपना तन-मन प्राणदान
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मित्रों...,

वैसे तो इस देश को आज़ाद हुये अधिक समय नहीं हुआ फिर भी आज की पीढ़ी बहुत ही जल्द इस देश को स्वतंत्र कराने वाले अनगिनत क्रांतिकारियों की शहादत को भूलने लगी उसने तो खुली हवा में आँख खोली और बंधनमुक्त जीवन का वरदान पाया इसलिये उसे तो अब याद भी नहीं कि कभी ये भारतमाता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी थी और इस देश पर फिरंगियों का शासन था ऐसे समय में हर एक देशवासी ने अपनी मातृभूमि को दुश्मनों के चंगुल से छुड़ाने के लिये हरसंभव प्रयास किया जिसके लिये उसने दिन-रात, समय-असमय, सुख-दुःख किसी की भी परवाह नहीं की और हंसते-हंसते अपने आपको अपने देश के लिये निछावर कर दिया जिनमें से कुछ लोगों को तो सब याद करते हैं उनके नाम स्वर्णाक्षरों में इतिहास में अंकित हो गये और अनेक ऐसे भी हुयें जिनकी दास्तान भी लोग भूल गये लेकिन ये भारतमाता तो अपनी किसी भी संतान को भूल नहीं सकती और जब-जब किसी शहीद की पुण्यतिथि आती उसकी आँखें नम हो जाती और वो चुपचाप उसकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करती हम सब जिसे भी इस पावन धरा पर जनम लेने का सुअवसर मिला हैं उनके इस ऋण से तो कभी उऋण नहीं हो सकते लेकिन उनको याद कर उनकी कुरबानी की उस अमर गाथा को दोहराकर उनके प्रति अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन तो कर सकते हैं ये नवजवान पीढ़ी जो उनको बिसराती जा रही उन्हें ये अफ़साना सुनाकर कम से कम उन वीर लोगों से परिचित तो करवाया ही जा सकता हैं ताकि वे भी अपने देश के क्रांतिकारियों के नाम, उनकी कहानियां और उनके त्याग को जान पाये जो काल के गाल में समा गये पर इस मिटटी के कण-कण में अपने लहू से अपनी वीरता की अमिट कथा लिख गये

आज ऐसे ही एक लाल ‘विनायक दामोदर सावरकर’ जिन्हें कि हम सब ‘वीर सवारकर’ के नाम से जानते थे का बलिदान दिवस हैं जो सिर्फ़ एक सच्चे देशभक्त ही नहीं बल्कि बड़े विचारक दार्शनिक स्पष्ट वक्ता होने के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे जो इस देश की सभी गलत परम्पराओं और कुरीतियों को भी जड़ से मिटाना चाहते थे जिससे कि लोग आपस में लड़ने-मरने की जगह अपने आपको इस धरा को स्वतंत्र कराने के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर दे जाती-पति भेदभाव से ऊपर उठकर ख़ुद को और दूसरे को भी सिर्फ़ एक मानव समझ उसके साथ भाईचारे का व्यवहार करें वे २८ मई १८८३ को नासिक के भगूर गाँव में पैदा हुये थे और खुद को एक ‘हिंदू’ मानते थे तथा ‘हिंदुत्व’ के पक्षधर थे इसलिये उन्होंने आजीवन ‘हिंदू’ जाति, ‘हिंदी’ भाषा और अपने देश ‘हिंदुस्तान’ के लिए कार्य किया जिसकी वजह से वह ‘अखिल भारत हिंदू महासभा’ के लगभग ६ बार ‘राष्ट्रीय अध्यक्ष’ चुने गये कहते हैं कि उन्होंने अपने देश को स्वतंत्र करने के लिये १९४० में पूना में अभिनव भारतीनाम के एक ‘क्रांतिकारी संगठन’ बनाया साथ ही आज़ादी को हासिल करने और उसके लिये अनवरत काम करने हेतु उन्होंने ‘मित्र मेला' के नाम से एक गुप्त संगठन का भी निर्माण किया । इस तरह उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ही अपने देश की खातिर समर्पित कर दिया और अपने उग्रवादी विचारों एवं ओजपूर्ण भाषण शैली से देश के जन-जन को जागरूक करने का कार्य करते रहे ये उनके सतत संघर्ष का ही परिणाम था कि लोग उनकी बात को न सिर्फ समझे बल्कि ओनके साथ खड़े भी हुये और उनके संगठन में भी शामिल होते गये । उनका कहना था कि--- ‘हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ । देश सेवा में ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की हैं” ।
   
इससे हमें पता चलता हैं कि एकाग्रता और पूरी लगन से जब कोई अपने कर्म को सेवा मान लेता हैं और उसे पूजा मानकर करता हैं तो उसके लक्ष्य भी उससे दूर नहीं रहते क्योंकि कर्म ही पूजा हैं और जो ह्रदय से देश को ही अपना धर्म मान ले उसके पास लोग स्वतः ही खिंचे चले आते हैं... उनका विश्वास था कि सामजिक और सार्वजानिक हित को ध्यान में रखकर यदि कुछ किया जाता हैं तो फिर उसका सुपरिणाम पूरी जनता को मिलता हैं इसलिये वो सबको एक समान मान उन्हें साथ लेकर चले... और देश की आज़ादी के समय वे इसके विभाजन के पक्ष में भी नहीं थे लेकिन उसे रोक न सके परंतु आज भी उनके विचार हम सबके लिये प्रेरणा का अनुपम स्त्रोत हैं अनेक ग्रंथ जो उन्होंने लिखे उनमें सही इतिहास वर्णित किया हैं... आज ही के दिन २६ फ़रवरी, १९६६ को मुंबई में वे इस देश को अलविदा कर चले गये और आज उनकी बलिदान दिवस पर हम सब उनको याद कर कोटि-कोटि नमन करते हैं... :) :) :) !!!
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२६ फरवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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