शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

सुर-४५ : "लव पैकेज का अंतिम दिवस...!!!"

पहले दिन...
...दिया ‘गुलाब’
दूसरे दिन...
...किया ‘इज़हार’
तीसरे दिन...
...खिलाई ‘चॉकलेट’
चौथे दिन...
...गिफ्ट करा ‘टेडी’
पांचवे दिन...
...हमने किया ‘वादा’ 
छठवें दिन...
...ली ‘ज़ादू की झप्पी’
सांतवे दिन...
...की ’प्यार की पप्पी’
आंठवे दिन...
...मनाया ‘प्रेम-दिवस’
अगले दिन...
...सब कुछ जैसा का तैसा ।।
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मित्रों...,

सात फेरों की तरह ‘प्रेमोत्सव’ के सात दिन बीत गये पर शायद, ही किसी जोड़े के बीच कोई भी सात जन्मों वाली गिरह बंधी हो उतनी ही पाक, उतनी ही पवित्र शादी के पावन रिश्ते जैसी क्योंकि जब तक ये युवा इसके वास्तविक मायने और इसकी गहराई में नहीं जायेंगे वो कितने भी बरस इसे मना ले कुछ नहीं होने वाला क्योंकि हकीकत यहीं हैं कि भले ही उनको लगता हो कि इस तरह वो ‘प्रेम’ नाम की शय को पा सकते हैं तो ये सिवाय एक मुगालते के कुछ भी नहीं क्योंकि वाकई में ये कोई ‘लव पैकेज’ नहीं जैसा कि ‘मार्केट’ इसे प्रचारित करता हैं या इसके आगमन के कुछ दिनों पूर्व से जिस तरह का माहौल तैयार किया जाता हैं यदि सचमुच ‘प्यार’ इस तरह प्रायोजित होता तो किसी को भी इसके लिये तरसना नहीं पड़ता हर उम्र का हर दर्जे का व्यक्ति इसे अपने जेब के अनुसार खरीद ही लेता पर, ये तो एक पावन अहसास हैं जिसकी अनुभूति भले ही आप इन दिनों कर ले चूँकि वातावरण में चारों तरफ प्रेम ही प्रेम का गान किया जाता हैं और ‘स्प्रे’ की तरह हर किसी पर उसका छिड़काव किया जाता हैं जिधर नज़र डाले उसके ही ‘गिफ्ट आयटम’ या उससे संबंधित कोई ‘विज्ञापन’ नज़र आता हैं तो आपको अचानक लगने लगता हैं कि आपके अंदर भी वो अहसास जग गया हैं क्योंकि किसी के भीतर इस भावना को पैदा करना मुश्किल नहीं वो तो चंद चित्र और बातों से से भी हो जाता हैं यही युवा वर्ग मात खा जाता हैं और वो अपने अंदर होने वाले ‘हार्मोनल परिवर्तन’ को ही प्रेम जैसे पवित्र भाव की संज्ञा दे देता हैं ये उसे नहीं पता कि उसकी वास्तविक अनुभूति को तो केवल उसमें उतरकर ही जाना जा सकता हैं जिसकी पहचान केवल तब होती हैं जब इंसान उससे होकर गुज़रता हैं या वो उसके उपर से गुज़र जाता हैं तब किसी भी तरह के दिन या सौगात की जरूरत नहीं होती ताउम्र वो खुशबू उसकी सांसों में बस जाती हैं

आज चहुँ और प्यार ही प्यार दिखाई दे रहा हैं अमां यार बरसात हो रही हैं ऐसा लगता हैं कि इस दुनिया में सब सुखी और खुश हैं क्योंकि हर किसी को प्यार जो हो गया हैं और जब ये कमबख्त होता हैं तो फिर कोई दुखी किस तरह रह सकता हैं लेकिन ये सिर्फ एक पहलू हैं अभी भी इसी देश में एक बड़ा तबका और वर्ग हैं जो ऐसे दिनों और उत्सवों से न सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि उसके पास इतना फ़िज़ूल वक़्त नहीं कि वो उसे ये सब मनाने में जाया कर दे ये तो उनके शगल हैं जिनके पास धन-दौलत की भरमार हैं लेकिन दिल से बड़े तंग हैं तो फिर उनको इस तरह के दिखावे से बड़ा सुकून मिलता हैं । इसके अलावा बचा वो नादान युवा वर्ग जो आसानी से इनके चक्कर में आ जाता हैं क्योंकि उसकी तो उमर ही होती हैं इस पड़ाव से गुज़रने की और दिमाग अनुभव से रिक्त इसलिये वो कमउम्र इस दिखावटी मायाजाल में फंस जाता हैं फिर  उसे लगता हैं कि यही प्रेम हैं और इसी तरह उसे दर्शाना जाता हैं । जिसकी वजह से एक और वर्ग जो खुद को जिम्मेदार मानता हैं वो उसे रोकने का प्रयास करता हैं और यही कारण हैं कि हमारे देश में इस उत्सव का इतना बड़ा बाज़ार तैयार हो गया क्योंकि यहाँ नौजवानों की भरमार हैं जो स्वभावतः विद्रोही समझा जाता हैं अतः उसे जितना भी इसके खिलाफ़ भडकाया जाता हैं या समझाने का प्रयास किया जाता हैं वो उतना ही इसके प्रति आकर्षित होता जाता हैं हमारे यहाँ भी किसी दल की अत्याधिक सक्रियता को कुछ लोगों ने इस दिन को मनाने की चुनौती की तरह स्वीकार किया । जबकि उन्हें किसी की खिलाफ़त करने की जगह धीरे-धीरे उसे अपनी ही संस्कृति और गौरवशाली परंपरा से रूबरू करवाना चाहिये क्योंकि ‘प्रेमोत्सव’ या ‘बसंतोत्सव’ मनाने की रवायत तो हमारे यहाँ भी रही हैं बल्कि हमारे यहाँ तो प्रेम की अनेकानेक अमर कहानियाँ भी हैं और देवता भी जिनके बाणों से घायल होने पर फिर कोई इसके असर से बच नहीं सकता और जिसे जीतकर व्यक्ति एक पल में आध्यात्मिकता के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुँच सकता हैं याने कि ये प्रेम ही उसकी मुक्ति का मार्ग भी बन जाता हैं जब उसे किसी इबादत की तरह किया जाता हैं गर, ये बात उसे सही तरह से समझाई जाये तो बेशक वो बाज़ार के ‘लव प्रोडक्ट’ के इस उथलेपन को जानकर ‘ढाई आखर’ की असलियत और इश्क़ समंदर की सच्चाई जान पायेगा जिसमें डूबकर ही आशिक़ पार उतरता हैं ।

खैर, आज रात के बाद उन सबके दिमाग से इसका ख़ुमार उतर जायेगा जिन्होंने केवल रस्मी तौर पर इसे मनाया हैं और कल से वही पुराना ढर्रा ये नहीं सोचना होगा कि अब अगला दिन क्या और जिसने सच्चे प्रेम को पा लिया उसे किसी दिन या समय की दरकार नहीं वो तो जब चाहे तब इसे मना सकता हैं... प्यार का सच्चा स्वरूप मेरी नज़र में ‘अर्धनारीश्वर’ का हैं जो ये दर्शाता हैं कि ‘नर’ हो या ‘नारी’ कोई भी पूर्ण नहीं दोनों आधे-अधूरे हैं, जो एक-दूसरे से मिलकर संपूर्ण होते हैं जिससे ‘प्रेम’ को विस्तार मिलता हैं और वो एक से अनेक होकर कई रूपों में विभक्त हो जाता हैं... कहीं ‘माता-पिता’ तो कहीं ‘भाई-बहिन’ बन जाता हैं... इस तरह बनती हैं रिश्तों की एक लंबी श्रृंखला जो अंतहीन चलती रहती हैं... जिसने इस स्वरूप को साकार कर लिया उसने प्रेम रूपी ईश्वर को पा लिया जिसके बाद कुछ और शेष नहीं रहता... प्यार की मंजिल पर पहुंचकर कहीं और जाने की ख्वाहिश किसे होगी भला... हैं ना... :) :) :) !!!     
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१४ फरवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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