गुरुवार, 12 मार्च 2015

सुर-७० : "आज़ाद देश के गुलाम... जागो...!!!"

तोड़ा वो
‘नमक कानून’
जिसने छीना था
‘स्वदेशी वस्तु’
अपनाने का जायज हक
किया फिरंगियों का विद्रोह
बजाकर ‘दांडी मार्च’ का बिगुल


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मित्रों...,

आज के समय में जब हम सभी विदेशी वस्तुओं, विदेशी संस्कृति और विदेश गमन के इस कदर दीवाने हैं कि बड़ी शान से न सिर्फ उनका दिखावा करते हैं बल्कि उनको पाने के लिये हर हद से गुज़र जाने को भी तैयार रहते हैं तभी तो जब तक किसी भी सामान पर किसी और देस की  बड़ी कंपनी का ठप्पा नहीं लगा होता खुद को बड़ा कमतर समझते कि हाय, हम कितने अभागे और निकृष्ट हैं जो ‘चायना’ या ‘अमरीका’ या किसी भी अन्य देश की बनी वस्तुयें खरीद नहीं सकते इसलिये जो लोग उन जगहों पर जा नहीं पाते वो अपने यहाँ ही बिकने आई उन चीजों को खरीदने कहीं भी पहुँच जाते हैं और फिर उन्हें अपने घर लाकर ऐसी जगह सजाते कि आने वाला न सिर्फ़ उसे देखे बल्कि उसके बारे में भी पूछे तो बड़ी ठसक से उसे इतराकर बताये कि हमारा एक मित्र या रिश्तेदार फलां स्थान पर रहता हैं सात समंदर पार और वहीं से वो हमारे लिये ये आला दर्जे की सौगात ढूंढकर लाया हैं इसी ललक के चलते अब लगभग सभी विदेशी कम्पनियों के सब तरह के प्रसाधन, बड़े-से-बड़े ब्रांड के परिधान, सजावट का बेशकीमती सामान हमारे यहाँ ही उन देशों के द्वारा उपलब्ध कराया जाता हैं और हमारे यहाँ की मुद्रा बड़ी आसानी से उनके जेब में चली जाती हैं और सारे स्वदेशी उत्पादन एवं उनको बनाने वाली देशी दुकानें और उद्योग-धंधे जिन्होंने न जाने कितने लोगों को रोज़गार दिया हुआ था धीरे-धीरे हाशिये पर पहुँचते जा रहे हैं जिसकी वजह से बेरोजगारी भी बढ़ती जा रही हैं

इस तरह हमारे यहाँ के गृह-उद्योगों को बड़ी ही चालाकी से बंद कर उन विदेशियों ने अपना वो ख़्वाब बिना ही हुकुमत के इस तरह से पूरा कर लिया जिसे वो कभी भी देशभक्तों की जागरूकता और स्वदेशी प्रेम के कारण दबाब डालकर भी पूरा न कर पाये थे । जी हाँ, मैं ऐसे ही एक आंदोंलन की बात कर रही हूँ जो परतंत्रता के दिनों में हमारे देश के क्रांतिकारियों के द्वारा अपने वतन और अपनी मातृभूमि में ईजाद किये गये सामानों की रक्षा हेतु किया गया था और अंग्रेजों के जबरन बनाये गये कानून को तोड़कर अपना विरोध प्रदर्शन किया था । जिसकी छोटी-सी चिंगारी ने ही एक विशाल क्रांति की उग्र मशाल जलाई थी और हम सब आज़ादी पाने के बाद इतने मगरूर और नाशुक्रे हो गये कि न सिर्फ़ अपने ही बलिदानियों की शहादतों को भूलते जा रहे बल्कि साथ अपने देश की मिट्टी की सौंधी महक और यहाँ पर अपने ही लोगों के हाथों से बनाई गई बेशकीमती स्वदेशी वस्तुयें और अपने यहाँ के उम्दा हुनरमंद और उनकी अनमोल कलाकारी को भी दफन करते जा रहे हैं तभी तो हर घर में एक टूथब्रश से लेकर तो सारी दरो-दीवार पूरी तरह से विदेश कंपनियों के सामान से सजी-संवरी हैं । यदि यकीन न हो तो देख लीजिये किस तरह आज भी विदेशी इस देश से जाने के बाद भी इन सब सामानों के रूप में आपके घरों पर अपना शासन कर रहे हैं और हम भी उनकी दिखाऊ संस्कृति से प्रभावित हो आज भी मानसिक रूप से उनके ही गुलाम बने हुये हैं तभी तो उनके जैसे कपड़े, उनके जैसा रहन-सहन और उनकी ही जैसी ‘लाइफ स्टाइल’ का अनुकरण कर अपने ‘भारत’ को ‘इंडिया’ बनाने पर तुले हुये हैं ।

‘ब्रिटेन’ ने जब भारत को अपने कब्जे में कर शासन करना शुरू किया तभी वो इस ‘सोने की चिड़िया’ की महत्ता को जान गये था और यहाँ व्यापार की अपार संभावना जानकर ही उन्होंने कमाई के उद्देश्य से अपनी कंपनी स्थापित की फिर धीरे-धीरे अपने पर फैलाना शुरू किये जिसके चलते उन्होंने रोटी, कपड़ा, चाय, नमक जैसी दैनिक उपयोग की वस्तुओं तक पर अपना एकाधिकार करना चाहा और इस तरह का कड़ा कानून और नियम बनाया कि अब भारतियों को उनके द्वारा बनाया गया या आयात किया गया सामान ही खरीदना पड़ेगा वे अपना बनाया नमक  न तो खा सकते हैं न ही बेच सकते हैं । उस समय हमारे यहाँ सच्चे देशभक्ति और देशवासी थे तभी तो उन लोगों ने  इस ‘नमक कानून’ के खिलाफ़ बगावत कर दी जबकि आज तो तब आंदोलन कर दे जब यदि उन्हें किसी विदेशी कंपनी का बना उत्पाद इस्तेमाल न करने दिया जाय । तभी तो लगता हैं कि जब वे हम पर शासन करते थे तब तो वो जबरदस्ती नहीं कर पाए लेकिन जब से हम आधिकारिक रूप से आज़ाद हुये तब से मानसिक रूप से उनके दास बन गये क्या नहीं एक बार सोचकर देखिये यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे स्वदेशी उद्योग-धंधे आज लापता न हो गये होते । इस तरह वो लोग तब जिस कुटिल चालों में काम्याब न हो पाये अब बड़ी सरलता से हो गये क्योंकि वे भी हमारी कमजोरी जान गये थे तभी तो एक ‘चाय’ जैसी वस्तु से जो उन्होंने हमें अपने काबू में करने का नुस्खा अपनाया था आज वही ‘पेप्सी-कोला’ के रूप में अपने पंजे तेजी से फैलता जा रहा हैं और उसकी सच्चाई सामने आने पर भी लोग देशी पेय को नहीं अपना रहे हैं ।  

१२ मार्च १९३० को ‘महात्मा गाँधी’ ने ‘साबरमती आश्रम’ से इस कानून की खिलाफ़त करने एक सत्याग्रह प्रारंभ किया जिसमें कि बड़ी संख्या में आकर उनके अनुयायियों ने उनका साथ दिया और एक विशाल जनसमुदाय ने उनके साथ मिलकर ‘६ अप्रैल १९३०’ को दांडी पहुंचकर समुद्र से नमक बनाकर इस कानून को खुलेआम तोड़कर अपना गुस्सा जताया जिसने कालांतर में व्यापक ‘सविनय अवज्ञा आंदोंलन’ का रूप ले लिया और जिसे की ‘टाइम’ पत्रिका तक ने इस देश के सबसे बड़े आन्दोलन में दूसरे स्थान पर रखा हैं जिसने देश बदलने की मुहीम को जन्म दिया । आज के समय में इस आन्दोलन की प्रासंगिकता और जागरूकता इस मायने में भी जरूरी हैं कि गर, सब एक साथ ही तो नामुमकिन कुछ भी नहीं और शासन किसी का भी हो गलत के लिए आवाज़ उठाना जरुरी हैं हमें ऐसे नहीं रहना चाहिए कि जिंदा हैं या मुर्दा पता ही न चले... और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति यदि हम अब भी नहीं जागृत हुये तो भले ही कहने को लगे कि हम आज़ाद हैं लेकिन जरा एक बार अपने शरीर पर पहने कपड़ों और उन सब सामग्रियों पर एक नज़र दौड़ा लेना जिन पर किसी विदेशी कंपनी की स्लिप लगी हैं आपको पता चल जायेगा कि अब आप उनके न सिर्फ अधिक गुलाम हैं बल्कि इस गुलामी की कीमत भी ख़ुशी-ख़ुशी अदा कर रहे हैं... सच... नहीं पता न... तो फिर एक बार सोचों तो सही कि ये जो खा-पी और पहन रहे हों वो क्या अपने देश का ही बना हैं... सोचो... सोचो... गुलाम हो या आज़ाद खुद जान जाओगे... :) :( :(  !!!    
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१२ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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