मंगलवार, 3 मार्च 2015

सुर-६२ : "आधी नहीं... पूरी आबादी की जन्मदात्री... 'नारी' --- ०२ !!!

जन्नत से
निष्काषित होकर
एक साथ ही तो आये थे
दोनों धरा पर फिर ऐसा क्यों ???
.....
‘एक’ तो
बन गया ‘शासक’
और ‘दूजा’ हुआ शोषक
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मित्रों...,

मानव इतिहास की कहानी जहाँ से शुरू होती हैं उसके शीर्ष पर ‘आदम’ और ‘हव्वा’ एक साथ हाथ पकड़कर खड़े नजर आते हैं जो इस धरती पर आकर इंसान की जात को जनम देने से पूर्व भी जहाँ भी थे साथ-साथ ही थे बराबरी के धरातल पर लेकिन न जाने कब किस तरह इसके दस्तावेज बनाते समय कलम आ गई पुरुष जाति के हाथ और बस, फिर जो कुछ भी लिखा गया उसमें सारे ‘कर्तव्य’ लिखे गये सिर्फ ‘नारी’ के नाम और ‘अधिकार’ आये ‘नर’ के खाते में जो अपने आप में ये ज़ाहिर करते हैं कि लिखने वाला ‘औरत’ की काबिलियत और ताकत से अच्छी तरह वाकिफ़ था इसलिये उसने इस तरह से नियमों को लिपिबद्ध किया कि जहाँ एक वर्ग को खुली आज़ादी और हर तरह के हुकूक हासिल हुये वही दुसरे वर्ग का आँचल ख़ाली जिसमें गर, कुछ था तो सिर्फ़ आंसू और दुआ को बढ़े हाथ और फिर उसी आंचल के साये में आँखें झुकाकर जीने को मिला हुआ सरमाया और एक दहलीज़ जिसके बाहर जाने का मतलब अपने ही आप अपनी हस्ती को मिटा देना इस तरह ‘औरत’ और ‘मर्द’ जो कभी बराबरी के हकदार थे के बीच अपने ही आप एक अदृश्य विभाजन रेखा खिंच गई जिसने एक तरफ कर दिया सारी ‘औरत जात’ को और दूसरी तरफ सारे ‘मर्दों’ को और इस तरह एक वर्ग बन गया ‘शासक’ और दूसरा अपने आप बन गया ‘शोषक’

फिर युग बदले, सदियाँ गुजरी लेकिन न बदली तो जमीन पर तथाकथित समाज के ठेकेदारों लिखी गयी उसकी तकदीर बल्कि इस किताब के पेज बढ़ते गये और हर बार नियम-क़ायदे कुछ ज्यादा ही सख्त होते गये जो उसे कमतर बनते रहें जिसकी वजह से आदिम युग से आधुनिक युग आने तक की नारियों का इतिहास पढ़े तो यही पाते हैं कि घर के अंदर का सारा का सारा दारोमदार उसके जिम्मे सौंप कर दूसरे ने पकड़ ली बाहर की राह और जब घुटन बढ़ती गयी इतनी कि सांस लेना भी दूभर हो गया तो विरोध के स्वर उठना लाज़िमी था क्योंकि किसी के अंदर गर, प्रतिभा हैं तो आप उसे केवल कुछ दिनों तक ही रोक सकते हैं उस पर पाबंदी लगाकर उसे लंबे समय तक कैद में नहीं रह सकते और वही हुआ जब पंख वाले परिंदे को पिंजरे में डाल दो तो जिसने न देखा हो आसमान न भरी हो कभी ऊंची उड़ान उसे तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जिसके पर उड़ने को बेकरार हो वो विद्रोह करता हैं लगातार कोशिश करता हैं बेड़ियाँ तोड़ने की जो एक दिन तो रंग लाती ही हैं तो फिर स्त्री की इतने बरसों की मेहनत किस तरह न असर दिखाती

आज के समय में हम देखे तो यही लगता हैं कि स्त्री-शक्ति ने जीत हासिल कर ली हैं पर सिर्फ उपरी तौर पर एक उच्च वर्ग में ही स्त्री-समानता का परचम लहराता नज़र आता हैं जबकि मध्यम या निचले वर्ग में कोई ज्यादा अंतर नहीं आया अभी भी वही ढ़ाक के तीन पात लेकिन हम कोई जंग तो नहीं लड़ रहे कि किसी को हराये क्योंकि हम जानते हैं कि किसी की भी हार हमारी अपनी ही होगी भले ही दो नज़र आये लेकिन आख़िरकार तो औरत और आदमी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिसमें ‘चित’ या ‘पट’ से कोई फ़ैसला नहीं किया जा सकता बल्कि कदम-से कदम मिलाकर चलने से ही परिवार और समाज की उन्नति कर खुशहाली ला जा सकती हैं ऐसे में प्रश्न यही उठता हैं कि जब शुरुआत में दोनों एक थे तो वो कब और किस तरह दो हो गए और एक दुसरे के ही खिलाफ खड़े हो गये ? दोनों ही हर तरह से सक्षम सबल होते भी एक को माना गया ‘ताकत’ का प्रतीक तो दूसरे को ‘कमजोर’ समझा गया ?? किसने पहल-पहल औरत के हाथ में सौंप दी घर की ज़िम्मेदारी और पुरुष को थमा दी बाहर की दुनियादारी ???

इसी असंतुलन ने ही दरअसल इस विवाद को पैदा किया और आज तक ये प्रश्न इसी तरह अनुत्तरित हैं क्योंकि किसी को भी यदि हम रोज-रोज ये बोले कि तुम अबला हो, तुम कुछ नहीं कर सकती हो, तुम्हारे अंदर यही योग्यता हैं कि तुम घर संभालो तो फिर किस तरह उसके दिमाग में कुछ और आ सकता हैं ये बोल तो इस तरह उसके कान में फूंके गये कि उसकी रगों में उसके गुणसूत्र में समा गये और पीढ़ी दर पीढ़ी फिर औरत खुद को बड़ी मुश्किल से इस सोच से बाहर निकाल पाई वो भी तब जब उसने आगे बढ़कर उस देहरी को लांघा तो उसे समझ आया कि ये कोई बंधन नहीं फिर जब परवाज़ भरी तो जाना कि अरे, वो तो उड़ सकती हैं फिर इस तरह धीरे-धीरे वो सारे झूठ और भ्रम उसकी प्रयत्नों से टूटते गये जो उसे कुछ भी करने से रोकते थे उसे एक निश्चित दायरे में सीमित रखते थे... जिस तरह बाज़ का बच्चा मुर्गी के बच्चों के बीच पलकर खुद को भी एक चूजा ही समझता हैं इसलिये ऊंचा उड़ नहीं पाता लेकिन जब उसे हकीकत का पता चलता हैं तो वो आकाश नाप लेता हैं वही तो अब स्त्री भी कर रही हैं लेकिन सभी नहीं केवल उँगलियों भी गिनी-चुनी अतः हमें सबको साथ लेकर चलना हैं और उन्हें भी ये अहसास दिलाना हैं कि वो भी सब कुछ कर सकती हैं... सच... बस, हिम्मत ही नहीं करती इसलिये अपने दबड़े में ही रह जाती हैं... तो हमें उन बाकी औरतों के लिये भी आवाज़ उठानी हैं... सबको उनका हक़ दिलाना हैं... तो बोलो... स्त्रीशक्ति जिंदाबाद... :) :) :) !!!
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०३ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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