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मित्रों...,
ये ‘एकल नाटिका’ रीयल
लाइफ करैक्टर ‘मलाल युसुफजई’ की
जिंदगी से प्रेरित है, "जिसने 14 साल नाज़ुक उम्र में
लड़कियों की तालीम के लिए तालिबान से मोर्चा ले लिया, वो चाहती तो हंसते-खेलते अपना बचपन गुजार सकती थी, लेकिन उसने संघर्ष का रास्ता चुना और अपनी जान की कीमत पर
भी अपने जैसी दूसरी लड़कियों के लिए ‘शिक्षा’ जैसी सामान्य चीज़ के लिए न सिर्फ संघर्ष किया बल्कि ये अब
तक जारी है"... स्टेज पर अपनी आवाज़ के उतर-चढ़ाव और भावों से ही इसे पूरा
दर्शाना हैं ॥
वेशभूषा – सफ़ेद सलवार कुरता और दो चोटियाँ रिबन बांधकर।
प्रॉपर्टी – पेन, कॉपी, डायरी, बैग ।
छोटी सी आशा – ‘मलाला युसुफजई’
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मुझे पता हैं जब हम
लडकियाँ नन्ही-मुन्नी होती हैं तो तितलियों की तरह उडती-फिरती हैं और ना जाने
क्या-क्या कर लेना चाहती हैं पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं चाहती न तो मुझे चाँद-तारों
को छूना है ना ही आसमानों में उड़ना है में तो एक बहुत ही साधारण से लड़की हूँ जिसकी
ख्वाहिशें भी बहुत ही साधारण हैं पता हैं मैं क्या चाहती हूँ ?
पढ़ना.... लिखना... खूब
सारा... पढ़ना-लिखना......!!!
आप सोच रहे होंगे कि इसमें
कौन-सी अनोखी बात हैं, वो तो बच्चे न भी चाहे तो उन्हें पढना पड़ता हैं पर, आप नहीं जानते मेरे लिये सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यही
हैं कि जो बात इतनी सहज-सरल लग रही हैं आपको सुनने में वो मेरे मुल्क में मेरे
मजहब में इतनी आसां नहीं हैं ।
आप जानना चाहते हैं मेरा
वतन कहाँ है और मैं किस मजहब को मानने वाली हूँ...।
तो क्या आप इतनी जल्दी भूल
गए मुझे...।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ
की अखबारों, न्यूज़ और ‘सोशल साइट्स’ में मेरी ही चर्चा थी जो मुझे नहीं जानते थे उन्हें भी
अचानक मुझमे दिलचस्पी पैदा हो गयी थी लोग ना जाने कहाँ-कहाँ से ढूंढ ढूंढ कर मेरे
बारे में जानकारियां ला रहे थे क्यूंकि उस वक़्त मेरी कलम मेरी ही तरह खामोश जो हो
गयी थी... अब कुछ याद आया... हाँ, वही १४ साल की मासूम बच्ची ‘मलाला’ जो पाकिस्तान की ‘स्वात
घाटी’ में पैदा हुयी और बचपन से ही अपने आस-पास अपने ही जैसी
लड़कियों को पढने के लिए तरसते देखा सिर्फ यही नहीं और भी ना जाने कितने बंधन...
कितने सारे फरमान जारी किये गए थे हमारे लिए... हम क्या पहने... कैसे रहे.......
क्या करे क्या न करे...... पढना हमारे लिए नरक का रास्ता हैं और भी ना जाने कितनी
बंदिशे...... जबकि मेरा मन तो सब कुछ जानने और हर चीज़ को समझने व हर जानकारी के
लिए तरसता था.... मुझे तो खूब ज्यादा पढने की तमन्ना थी और वो हर काम करने की जो
मेरी उम्र की किसी भी लड़की को हो सकती हैं खेलना-कूदना, मस्ती करना, धमाचोकड़ी
मचाना... आप सबको तो लग रहा होगा इसमें मुश्किल क्या हैं... पर, यदि आप मेरी तरह इस वातावरण में रहते तो जानते की यहाँ तो
सांस लेना भी एक सज़ा हैं... बस, ना जाने कहाँ-कहाँ की और
कैसी-कैसी बातें मेरे नन्हे मन में आती रहती जिन्हें कोई समझ नहीं सकता था...
मैंने तो मदरसे में दाखिला भी लिया पर बस कुछ दिन ही अमन चैन से गुजरते की फिर
कहीं कोई सियासी या आतंकी हादसा घटित हो जाता और निशाना बनती हम लड़कियों की
एकमात्र पाठशाला... उस स्कूल में पढ़ने वाली मैं भी अपने इलाके की और लड़कियों की
तरह बचपन की आम खुशियों की बाट जोहती रहती थी और मिल जाएं तो सहेज कर रखती थी ।
मुझे तो ये खबर भी नहीं थी कि जो अन्य मुल्क में सभी लोगों
को सहज में ही हासिल है वो आज़ादी भी हमसे छीन ली जाएगी २००९ में हमारे गाँव को
तालिबानों ने अपने कब्जे में कर लिया था । अब लड़कियों का घर से बाहर निकलना, पढाई करना या खेलना-कूदना सब पर अचानक से पाबन्दी लगा दी
गयी थी और मैं जिसने अभी अपने पैरों से दौड़ना ही शुरू किया था कि उन पैरों को घर
कि चारदीवारी में कैद करने का आदेश दे दिया गया और ये अन्याय सिर्फ मुझ अकेले के साथ नहीं था बल्कि सभी लड़कियों के लिए ये
फरमान जारी किया गया था ।
तालिबान के दौर में
लड़कियां और महिलाएं बाज़ार नहीं जा सकती थीं, “तालिबान
को क्या मालूम कि महिलाएं जहां भी रहें, उन्हें
खरीदारी पसंद हैं” । बाज़ार में किसी तालिबन से पकड़े जाने पर डांटा जाना या
घर लौटा दिया जाना या फिर मारा जाना, ऐसे
अनुभव अब भी याद आते हैं तो सिहरन हो जाती हैं उस दौर में महिलाएं घर से बाहर किस
तरह का बुर्का पहनकर जाएं इस पर भी रोकटोक थी ।
इतनी पाबंदियों के बीच
मेरे मन में न जाने कितने अरमान बाहर
निकालने को मचल रहे थे पर अब तो बोलने पर भी अंकुश लगाया गया था ऐसे दमघोटू माहोल
में मैंने अपने विचारों को अपने अन्दर ही दफ़न नहीं होने दिया बल्कि ‘गुल मकई’ के नाम से अपनी डायरी
लिखनी शुरू की, जिसमें मैंने अपने गाँव में हो रहे तालिबानी अत्याचारों का
वर्णन किया था।
एक दिन मैंने देखा की
हमारे यहाँ अत्याचार बहुत बढ़ते जा रहे हैं ना जाने कैसी-कैसी घटनाएं और हादसे होने
लगे तब मुझे बहुत दुःख हुआ और मैंने लिखा--- "तालिबान लड़कियों के चेहरे पर
तेज़ाब फेंक सकते हैं या उनका अपहरण कर सकते हैं, इसलिए
उस वक्त हम कुछ लड़कियां वर्दी की जगह सादे कपड़ों में स्कूल जाती थीं ताकि लगे कि
हम छात्र नहीं हैं अपनी किताबें हम शॉल में छुपा लेते थे।"
और फिर एक दिन वो भी आया
जब तालिबानों ने हम लड़कियों के स्कूल को बंद करने का फरमान जारी कर दिया वो मेरी
जिंदगी का सबसे दुखद दिन था उस दिन मैंने लिखा था, "आज
स्कूल का आखिरी दिन था इसलिए हमने मैदान पर कुछ ज़्यादा देर खेलने का फ़ैसला किया, मेरा मानना है कि एक दिन स्कूल खुलेगा लेकिन जाते समय मैंने
स्कूल की इमारत को इस तरह देखा जैसे मैं यहां फिर कभी नहीं आऊंगी" ।
तब मैं भले ही ११ वर्ष की
थी पर मेरी पढने की इच्छा इतनी प्रबल थी की मैंने तालिबानी गिरोह से लोहा ले लिया
था और २००९ में अपने स्तर पर लड़कियों के लिए ‘शिक्षा
अभियान’ की शुरुआत की इतनी छोटी सी उम्र में ही मुझे वो सब करना पड़ा, जिसकी कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी तब भी मुझे कोई गम नहीं
था बल्कि मैं तो बड़े उत्साह से ये सब कर रही थी लेकिन मुझे पता नहीं था की मेरा ये
कामकाज तालिबानी कट्टरपंथियों की आंखों में चुभ रहा था ।
ऐसे ही समय गुजर रहा था तब
एक दिन रिपोर्टर ने मुझसे पूंछा –‘तुम अभी सिर्फ १३ वर्ष की
हो अपने घर मे रहकर काम करो तुम्हे क्या हक़ है की तुम इन सब बातो को उठाओ जो
तुम्हारी जान की दुश्मन बन जाये...???
पता नहीं कहाँ से मुझे
प्रेरणा मिली और मैंने कहा--- नहीं, नहीं...
मुझे हक है... मुझे शिक्षा पाने का हक है... मुझे भी कविता करने का... गीत गाने का
हक है... मुझे भी बाजार जाने का अपनी बात बोलने का हक है... मुझे रोकने का हक
अल्लाताला ने उन्हें नहीं दिया है जो खुद अपनी हदों के पार हैं... मेरे जैसों को
मेरी आवाज की जरूरत हैं अगर अब मैं अपनी आवाज नहीं उठाऊगी तो, कब उठाऊगी...???
फिर रिपोर्टर ने पूछा---
अगर तालिबानी ने तुम्हे पकड़ लिया तो ...?
मैंने भी कह दिया--- यदि
तालिबान ने मुझे पकड़ लिया तो... वे मुझपर तेजाब डाल सकते हैं... मुझे अपहत कर क़त्ल
कर सकते हैं लेकिन मे जिस दिशा में निकल गयी हूँ वहां अब यह सब मायने नहीं रखता
है।
पर, मुझे क्या पता था की एक दिन सचमुच ऐसा ही हो जायेगा आज भी
मुझे वो दिन याद हैं ११ अक्टूबर २०१२ दिन मंगलवार इस्लामाबाद से १६० कि. मी. दूर
स्वात घाटी स्थित मिंगोरा मे जब मैं स्कूल
से लौट रही थी दो तालिबानी हमलावारों ने उसकी स्कूल बस रोकी और मेरा नाम पुकारा
मैं निडरता से उनके सामने आ गयी और एक नकाबपोश ने मेरे सर पर गोली मार दी ।
उसके बाद क्या हुआ मुझे
पता नहीं पर जब मेरी हालत थोड़ी संभली तो पता चला की आपरेशन के बाद गोली
निकलने से मेरे परिजनों ने राहत की सांस तो ली है लेकिन मुश्किल वक्त अभी
टला नहीं है। जो भी हो मैं अब भी यही चाहती हूँ कि मैं ऐसे देश की नागरिक बनूँ, जहां शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये और हर बच्ची को
पढऩे का मौका मिले।
मुझे पता हैं की अंजाम
क्या होगा पर मैं भयभीत नहीं और मैंने निश्चय किया की यदि अपनी जान देकर भी मैं
अपनी बहनों को इस नरक से मुक्त करा सकूँ
तो मेरी ज़िन्दगी भी सार्थक हो
जाएगी और मेरे नाम के मायने भी.... एक बार मैंने अम्मी से पूछा था की मेरे नाम के
मायने क्या है तब मुझे पता चला की मलाल का अर्थ तो ‘मलाल
युक्त’ शोक संतप्त से भरे मन वाली होता हैं । शायद इसलिए मेरे मन
में सबके दुःख दूर करने का ख्याल रहता हैं... मैं भले ही अब उस नर्क से मुक्त और
आज़ाद हूँ और मुझे पिछले साल अपने इस साहसिक काम के लिये भले ही शांति का ‘नोबल पुरस्कार’ मिल गया
हैं लेकिन मेरी बहनों के लिये मेरी लड़ाई अभी जारी हैं.... मैं खुदा से यही दुआ
करती हूँ की हम लड़कियों को पढने का अवसर मिले हम भी अपने सपनों को पूरा कर सके...
मुझे उम्मीद है की किसी दिन ऐसा जरुर होगा... इंशाल्लाह.....आमीन... :) :) :) !!!
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१५ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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