शनिवार, 28 मार्च 2015

सुर-८५ : "मर्यादा पुरुषोत्तम राम... नहीं बनना आसान...!!!"

‘राम’
एक नाम
इसमें बसे चारों धाम
बस, लो सुबह और शाम
बन जाते सब बिगड़े हुये काम
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मित्रों...,

ये लिखते हुये बड़ा गर्व हो रहा हैं कि भले ही युग बदलकर ‘त्रेता’ से ‘कलयुग’ बन गया लेकिन इस अत्याधुनिक तकनीकी युग में भी शायद ही कोई ऐसा घर हो जहाँ पर ‘रामचरितमानस’ या ‘रामायण’ जैसे पवित्र धार्मिक ग्रंथ न हो या कोई भी ऐसा इंसान हो जो कि ‘राम’ नाम या उनकी कथा से भलीभांति परिचित न हो हम सब अपने बाल्यकाल से ही इस ‘रामकथा’ को सुनते हुये ही धीरे-धीरे बड़े होते हैं और उसके हर एक पात्र को इस तरह से जानने लगते हैं कि वो हमारे परिवार और जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं उनकी ये कहानी इतने सारे आदर्श पात्र और पावन सीखों से भरी हुई हैं कि यदि हम किसी भी एक को ही अपने जीवन में उतार ले तो भले ही उस उच्चतम शिखर तक न पहुँच पाये लेकिन सबसे निम्न स्तर पर रहकर भी जिस तरह का व्यक्तित्व निर्मित करेंगे वो हमारे इस मानव जन्म को सार्थकता प्रदान करने के लिये पर्याप्त होगा क्योंकि सभी चरित्र अपने आप में परिपूर्ण और पारसमणि के समकक्ष हैं जिनके स्पर्श मात्र से हमारा वजूद भी स्वर्ण की तरह कांतिमय बन सकता हैं ये एक ऐसा महानतम धर्मग्रंथ हैं जिसमें कि मानव, वानर, भगवान, नायक, खलनायक और हर तरह के किरदार हैं जो अंततः प्रेरणा बनकर उभरते हैं तभी तो आज तलक भी इस कथा का मंचन किया जाता हैं इसका परिवेश बदलकर इसे नवीनतम स्वरुप में ढालकर प्रस्तुत किया जाता हैं जिससे कि हम ये जान सके कि किस तरह एक इंसान अपने संकल्प और लक्ष्यों का निर्धारण कर किस तरह एक-एक सोपान पार करते हुये भगवान बन जाता हैं और सदियाँ गुजर जाने के बाद भी उसका नामोनिशान मिटता नहीं बल्कि और गहरा होता जाता हैं कि क्योंकि ये कोई गढ़ी या रची गयी कहानी नहीं एक शाश्वत सच्चाई हैं स्वर्ग से उतरी पवित्र गंगा की धारा तरह जो अनवरत बहते हुये अब भी हमारे पापों को धो रही हैं  

अयोध्या के महाराजा ‘दशरथ’ ने अपने चौथेपन में बड़ी कठिन तपस्या के बल पर चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को जब ‘पुष्य नक्षत्र’ ने अपनी प्रथम चरण में कदम रखा था तो एक नहीं चार पुत्रों को एक साथ पाया था जो एक से बढ़कर एक थे लेकिन सबसे बड़े ‘राम’ ने अपनी वय और रिश्ते में सबसे बड़े होने के कारण बालपन से ही जिस तरह की जिम्मेदारी और गंभीरता का आवरण ओढ़ा तो फिर सारा जीवन उसका निर्वाह किया और वो अपने तीनों छोटे भाइयों के लिये एक ऐसे बड़े भाई बन गये जिनकी छाया का अनुगमन करते हुये वो सभी आजीवन उनके पीछे-पीछे चलते रहे उन सबने बचपन के खेल साथ खेले और फिर विद्याध्ययन के लिये भी एक साथ ही गुरुकुल गये जहाँ सबने एक जैसी शिक्षा ग्रहण की और उस जगह अपने राजमहल की सुख-सुविधा के अलावा अपने माता-पिता से दूर होने के कारण ‘राम’ ने सभी का एक पालक की तरह ध्यान रखा और इसकी वजह से उनके बीच स्नेह का ऐसा नाता जुड़ा कि वे लोग बिना कहे-सुने भी एक दूसरे को सुनते और समझते थे तभी तो जब ऋषि विश्वामित्र राम को लेने आये तो उनके प्रिय अनुज लक्ष्मण भी उनके साथ चले आये और सबका विवाह भी एक साथ ही हुआ फिर जब माँ कैकयी की वजह से उनके पिता द्वारा मज़बूरी में उनको वनगमन का आदेश दिया गया तो भी उनके छोटे भाई लक्ष्मण उनके साथ थे और अब तो उनकी भार्या ‘सीता’ का भी संग उनको मिल गया था

‘राम’ ने अपने जीवन में हर तरह की मर्यादा का पालन किया एक पुत्र, भाई, पति, मित्र, राजा और वनवासी याने कि हर रूप में उन्होंने अपने आपको जिस तरह से ढालकर अपने कर्तव्यों का पालन किया वो सबके लिये मिसाल बन गया और जो भी संकल्प या व्रत लिया उसे हर हाल में पूरा किया इसलिये तो उन्हें सिर्फ ‘राम’ नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहा जाता हैं उनके जैसा बन पाना सब चाहते हैं लेकिन हम ये सोचते कि वो तो भगवान थे इसलिये उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं था जबकि यदि हम उनकी कथा का गहन विश्लेषण करें तो धीरे-धीरे उनके मानवीय स्वरूप को आदमकद होते पाते हैं जो कि इतना विशाल हो जाता हैं कि हम खुद को उस तरह बनाने में अक्षम पाते तो उनको भगवान कहकर अपने आपको कमतर समझते जबकि उनका जीवन चरित हम सबको यही प्रेरणा देता कि यदि हम सब उनकी तरह ही मर्यादित संयमित जीवन जिये तो समाज में उसी तरह एक आदर्श स्थापित कर सकते हैं... उनकी जन्मोत्सव के इस पुनीत अवसर पर हमें यही व्रत लेना चाहिये कि हम भी हर परिस्थिति में अपने फर्ज़ से न डिगेंगे और जो भी ध्येय हैं उसे प्राप्त करने के लिए हर बुराई, हर अन्याय और हर आततायी से लड़ेंगे... फिर देखना वो भी हमारा साथ देंगे... हमें आगे बढ़ने का साहस देंगे... जय श्रीराम... पतित पावन सीताराम... :) :) :) !!!    
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२८ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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