बुधवार, 4 मार्च 2015

सुर-६३ : "आधी नहीं... पूरी आबादी की जन्मदात्री... नारी---०३ !!!"

रब
ने तो
किया न
कोई भेदभाव
गुंथकर एक समान तत्व
बनायी स्त्री-पुरुष की काया
लेकिन, दुनिया की अपनी माया 
जिसने बना दी एक तन की दो छाया

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मित्रों...,

जब भी कभी कोई ‘धर्मग्रंथ’ या ‘आध्यात्मिक पुस्तक’ का अध्ययन करूं तो न जाने कैसे पर, अक्सर मेरे मन में ये विचार चला आता हैं कि ईश्वर ने अपनी प्रयोगशाला में संसार के समस्त प्राणियों को बनाने के लिये एक ही प्रकार के ‘फ़ार्मूला’ का प्रयोग किया जिसमें उसने अलग-अलग तासीर के पांच ख़ास तत्वों ‘आग’, ‘हवा’, ‘पानी’, ‘धरती’ और ‘आकाश’ को मुख्य रूप से इस काज के लिये चुना अब जब इनकी ख़ासियत के बारे में सोचूं तो महसूस करती हूँ कि इनमें से अधिकांश मतलब पांच में से तीन अर्थात अधिकतम प्रतिशत तो ‘स्त्री पक्ष’ को जाता हैं क्योंकि ‘आग’, ‘हवा’ और ‘धरती’ तो ‘स्त्रीवाचक’ शब्द हैं और केवल दो ‘पानी’ एवं ‘आकाश’ ही पुरुषवाचक शब्द हैं इस तरह हम पाते हैं कि तीन हिस्सा ‘स्त्री तत्व’ और दो हिस्सा ‘पुरुष तत्व’ को मिलाकर ही हर एक ‘नर’ और ‘नारी’ का ‘पुतला’ बनाया जाता हैं जो ये बताता हैं कि दोनों के भीतर ‘स्त्री अंश’ की मात्रा ज्यादा होती हैं अतः किसी मायने में सबको अधिक से अधिक नारी सुलभ गुणों से युक्त होना चाहिये था या कम से कम उनके वज़ूद में औरत जात के समान कोमल अहसासों का आधा प्रतिशत तो होना ही चाहिये लेकिन हम देखते हैं कि वास्तव में ऐसा होता नहीं हैं । दोनों की शारीरिक आकृति के अलावा उनकी प्रकृति भी एकदम भिन्न होती हैं तथा उनके गुण, चरित्र व विशेषतायें भी एक-दूसरे से जुदा होती हैं इतनी जुदा कि गर, कोई ‘पुरुष’ कभी भूल से भी स्त्रियोचित हाव-भाव या हरकत का प्रदर्शन करें तो उसका मजाक उड़ाया जाता हैं और इसी तरह कोई ‘स्त्री’ यदि पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तो उसे ‘मर्दानी’ कहकर पुकारा जाता हैं जो स्वयमेव ये दर्शाता हैं कि आदमी-औरत को अपने-अपने किरदार में एक भिन्नता रखना जरूरी हैं जिससे कि उसकी पहचान हो सके क्योंकि केवल बाहरी रंग-रूप उनका लिंग निर्धारण करने पर्याप्त नहीं बल्कि व्यवहार में भी भिन्नता जरूरी हैं जो कि उसके ‘जींस’ के द्वारा निर्धारित होती हैं ।

एक ‘पुरुष’ की निर्माण सामग्री में मिलाया गयी ‘आग’, ‘हवा’ और ‘मिट्टी’ की उपस्थिति उसे कहीं न कहीं तो थोडा-सा नरम बनाये तो कितना अच्छा हो क्योंकि कुछ लोग जो अपने ‘मर्द’ होने के गुरुर में इस कदर अहंकार से भर जाते हैं कि वो अपने आगे ‘औरत’ को कुछ भी नहीं समझते और कभी-कभी इतने निष्ठुर नहीं हो जाते कि क्रूरता की हर हद पार कर जाते कम से कम ये चीजें उसकी देह के किसी कोने में थोड़ी-सी ही सही ममता जगा पाते तो आज ये ‘लिंगानुपात’ का खतरा भी पैदा न होता और ‘कन्या भ्रूण’ भी इस संसार में आने से न घबराता न ही लोग उसके पैदा होने पर दुखी होते । लोग अपने घर ‘बच्चे’ की जगह ‘बच्ची’ इसलिये नहीं चाहते कि वो कोई मुसीबत या आफ़त हैं बल्कि उसकी सुरक्षा और शादी की जिम्मेदारी ही लोगों को उसके जन्म के प्रति आशंकित करती जिससे कि वो घबरा जाते पर, यदि तथाकथित ‘मर्द’ लोग अपने उस झूठे गुमान से बाहर आ जाये और इसके सही मायने समझ जाये तो शायद, कोई भी परिवार किसी भी लड़की के जन्म की खबर से दुखी न हो ख़ास तौर वो तबका जिसके लिये एक लडकी का पालन-पोषण और उसकी जिम्मेदारी उठाना सबसे मुश्किल काम होता और ये वही वर्ग हैं जहाँ ‘परिवार नियोजन’ जैसे अभियानों का जरा-सा भी असर नहीं होता । ‘स्त्री सशक्तिकरण’ की जो भी झलक हमें अपने आस-पास या दुनिया के किसी भी हिस्से में नज़र आती हैं वो सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग में ही संभव हो पाया हैं जबकि एक बड़ा तबका अब भी इससे अछूता हैं जिसकी वजह उनकी अशिक्षा, संस्कृति, गरीबी, पिछड़ापन और सामाजिक स्थिति हैं जहाँ पर अभी इस शब्द के मायने भी कोई नहीं जानता क्योंकि जिनके लिये रोजी कमाना ही सर्वोपरि और जीवन-मरण का प्रश्न हो वो इन सब चोंचलों में नहीं पड़ते पर हमें तो हर जगह इस मशाल को जलाना हैं ताकि हर औरत को जीने का हक और उसके हिस्से का आसमान मिल सके । ये तभी हो सकता हैं जब वो अपनी उन महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा कर सकें और हमारे लिए उस तबके को जगाना इसलिये सबसे ज्यादा जरूरी हैं क्योंकि ये हमारे समाज की नींव या बोले तो जड़ हैं और जब उसी में घुन लगा हो तो भला पेड़ किस तरह से स्वस्थ और फलदायक हो सकता हैं साथ वो भी हमारा ही तो हिस्सा हैं जिसे साथ लेकर चले बिना हमारी तरक्की अधूरी हैं ।

रब ने तो सबको एक जैसे सामान से बनाया भले ही मात्रा अलग-अलग ली हो साथ सबको एक-सी कुदरत की नेमतें भी बख्शी लेकिन फिर भी एक रेखा जो नर-नारी के बीच खिंच गयी उसने बड़ी असमानता पैदा कर दी जिसे दूर करने का एकमात्र यही उपाय हैं कि हर कोई अपनी शख्सियत पर गर्व करने की बजाय ये जाने कि भले ही उसके कुल, परिवार, समाज, धर्म और जाति ने उसे किसी से ऊंचा बना दिया हो लेकिन भीतर तो सबके वही ‘पंचतत्व’ भरे हुये हैं... किसी धरातल पर सब एक समान हैं तो फिर क्यों न सबको ही जीने का अधिकार भी एक समान हासिल हो वैसे भी सबको जिंदगी बस, एक बार मिलती तो फिर क्यों कोई तो हंसता रहे और कोई सिर्फ रोते हुये ही मर जाये यदि हमें ईश्वर ने ये अवसर दिया कि हम किसी एक की भी जिंदगी संवार सके तो हमें वही करना चाहिए और इसी तरह सब करेंगे तो फिर समानता तो आयेगी ही... अपने भीतर के तत्व को सभी लोग पहचान ले तो कोई किसी को खुद से कमतर न समझे अंतरदृष्टी से देखने पर ही हम सबको एक समान देख पायेंगे... यदि ‘पुरुष’ ये जान ले कि उनका ममतामयी होना कोई कमजोरी या मजाक की बात नहीं बल्कि उनके अंदर समाये ‘स्त्रीतत्वों’ की भरमार हैं तो वे शर्मिंदा न होंगे और खुलकर सहजता से अपने उन स्त्रियोचित गुणों को दर्शा पायेंगे तो... हमें उन्हें बताना हैं कि ये कोई अप्राकृतिक नहीं बल्कि रब का ही विधान हैं कि उसने सबमें नारी तत्व की प्रधानता रखी तो फिर सब ‘स्त्री’ हो या ‘पुरुष’ मिलकर बोले... ‘स्त्री शक्ति जिंदाबाद’... :) :) :) !!!!      
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०४ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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