गुरुवार, 19 मार्च 2015

सुर-७६ : "वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपसी रिश्ते निभाना मज़बूरी या जरूरत ???"

गर,
बात हो
हालातों की तो,
वो भी टूट जाते 'रिश्ते'
जिन्हें कि बनाते 'फ़रिश्ते' !!!
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'रिश्ते' जो भी हो, जैसे भी हो पर, इनके बिना जीना मुश्किल होता हैं क्योंकि यही तो वो रसायन हैं जो हमें एक-दुसरे से जोड़े रखता हैं, हम सभी को जीने की ऊर्जा देता हैं और जिसकी वजह से हमारी देह को सांसों का इधन मिलता रहता हैं जिससे हम ताउम्र चलते रहते हैं । भले ही हमें ये लगता हो कि हम खाने-पीने और सोने-जागने से जीवंत बने रहते हैं लेकिन हक़ीकत इसके उलट हैं और इसे उससे ही पूछिये जिसे दुनिया के तमाम सुख-सुविधाएँ हासिल हैं पर, कोई भी रिश्ता उसके साथ मौजूद नहीं जो उसकी तन्हाई, उसके दुःख-दर्द को समझ सके, उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके, उसे मुसीबत के समय संबल दे सके, उसे जरूरत पड़ने पर सहारा दे सके और जब उसके दर्द आँखों के रास्ते बाहर आना चाहे तो उसे अपना कंधा दे सके या उसके आंसूं पौंछ चहरे पर मुस्कराहट खिला सके । चूँकि रिश्ते संजीवनी बूटी कीतरह होते हैं अतः 'रिश्तों' का बनना, बनाना और निभाना कभी तो जरूरतों के मद्देनज़र होता, तो कभी रगों में दौड़ने वाला लहू और उससे जुड़े फर्ज़, रवायतें उसे ढोये जाने को मजबूर करते यानी कि हम निश्चित तौर पर ये नहीं कह सकते कि किसी भी रिश्ते की लंबी या छोटी उम्र के पीछे वास्तविक वजह क्या हैं ???

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो हमारी पैदाइश के साथ ही जनम लेते हैं तो कुछ हम समाज के दायरे के भीतर या बाहर से चुनकर बनाते हैं जो ये बताता हैं कि ये सिर्फ रक्तसंबंधी ही नहीं होते बल्कि हम स्वयं भी इन्हें बना सकते हैं । हमारे पारिवारिक रिश्ते-नातों में अमूमन हमें कुछ विपरीत और अनचाही परिस्थतियों में न चाहते हुये भी उनको निभाना पड़ता है क्योंकि सामाजिक ढांचा और मर्यादा हमें इसे तोड़ने की इज़ाजत नहीं देती और हमारे संस्कार भी इसे अनुचित मनाते हैं अतः जो रिश्ते हमारे घरेलु संस्कारों और रस्मों-रिवाजों के ताने-बाने से बुने होते हैं अक्सर हम उनको किन्हीं दम घोंटू हालातों में भी निभाने को मजबूर हो जाते हैं क्योंकि उनसे निजात पाना या उन्हें तोड़ पाना इतना आसान नहीं होता या कई बार कोई उम्मीद और आस भी हमें उससे जोड़े रखती हैं और फिर उसे निभाना जरूरत बन जाता हैं । इस तरह कह सकते हैं कि रक्त संबंधो को गतिमान रखने का सारा दारोमदार व्यक्ति की मानसिकता, सामाजिक-पारिवारिक परिवेश और उसकी स्वयं की मानसिकता पर निर्भर करता हैं । जैसे कि- अयोध्या नरेश 'श्रीरामचंद्रजी' का अपनी सौतेली माता 'कैकयी' के हठ और मजबूर पिता 'दशरथ' की आज्ञा से वनगमन करना उस समय के हालात की जरूरत थी क्योंकि लंकाधिपति अधर्मी राक्षसराज 'रावण' का वध कर धरती को पापमुक्त करने के लिये ही उनका जन्म हुआ था अतः विधाता ने ही ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर दी और उन्हें ये निर्णय करना पड़ा जो कि उस वक़्त की जरुरत थी । लेकिन उन्ही 'रामचन्द्रजी' द्वारा 'सीता' को लंका से छुड़ाने के पश्चात उनकी अग्निपरीक्षा लेना या एक धोबी की शिकायत पर उन्हें त्यागना उनकी मजबूरी था क्योंकि उस कालखंड के संविधान और परिवेश में इस तरह की मान्यता थी जिसे न चाहते हुये भी अपनाना पड़ा जो कि एक राजा होने के नाते उनका दायित्व और राजधर्म था ।

जबकि जो भी रिश्ते हम बनाते हैं उनमें किसी भी तरह का दबाब या बंधन नहीं होता अतः हम ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें ताउम्र निभाये जाते हैं जैसे कि 'मित्रता' लेकिन इसमें भी कभी-कभी कुछ ऐसे हालात आ जाते हैं कि इनका निभाना मजबूरी या जरूरत बन जाता हैं । जैसे कि- भगवान श्रीकृष्ण का कर्ण को असहाय अवस्था में अर्जुन के हाथों मरवाना उस काल की अमर्यादित राजनिति और कौरवों द्वारा पांडवों के साथ किये गये छल की जरूरत बन गया था । इसी तरह श्रीकृष्ण के समझाये जाने पर भी महाभारत के युद्ध में कर्ण सच्चाई जानते हुये भी कौरवों का साथ देना उसकी मजबूरी थी क्योंकि उसके मित्र दुर्योधन ने विपरीत समय में उसे अंगदेश का राजा बनाकर उसके ऊपर जो अहसान किये थे वो उसकी अनदेखी नहीं कर सकता था अपने मित्र को दगा नहीं दे सकता था जबकि अंजाम उसे भी पता था लेकिन उसके लिये अपने दोस्त के द्वारा किये गये अहसान को भूल पाना कृतध्नता थी ।

इन पारिवारिक और आपसी रिश्तों के अतिरिक्त भी हमारे आस-पास के लोग और माहौल और समाज से भी हमें कुछ 'रिश्ते' होते हैं जैसे हमारे पडौसी, हमारे सहकर्मी, हमारे सहपाठी और हमसे मिलने वाले कुछ अजनबी-से लोग जिनसे क्षणिक ही सही पर एक अनजाना-सा नाता बन ही जाता हैं । इनसे व्यक्तिगत संबंध होना जरूरी नहीं होता लेकिन फिर भी अपनी जरूरतों और मजबूरियों के चलते हम आपसी तालमेल और सामंजस्य बिठाकर इनका निर्वहन करते हैं क्योंकि कभी-कभी एक भय भी हमारे भीतर होता हैं कि कहीं किसी बात से नाराज़ या गुस्सा होने पर वो हमारा अहित न कर दे और इसलिये चुपचाप उसे उसी तरह निभाये जाते हैं ।  जैसे कि- देश का विभाजन का निर्णय महात्मा गाँधीजी द्वारा लिया जाना उस कालखंड की मजबूरी और उनका  जवाहरलाल नेहरु से अतिशय लगाव की जरूरत बन गया जबकि नाथूराम गोंडसे द्वारा उनकी हत्या किया जाना उसकी व्यक्तिगत जरूरत और देश के प्रति उसकी भक्ति का सबब बन गया ।

आपसे में बनने वाले हर रश्ते में यदि सही तालमेल और समझ का एक-सा स्तर होता हैं तो फिर वो निःस्वार्थ प्रेम से सदैव चलायमान रहता हैं लेकिन जब उसमें स्वार्थ का तत्व घुल-मिल जाता हैं तो उसे निभाए जाना एक मजबूरी और उस व्यक्ति की जरूरत बन जाता हैं । जैसे कि- जब पति-पत्नी एक दुसरे से स्नेह करते हैं तो एक-दुसरे की कमियों को भी अपनाकर चलते हैं जो कि घर को बचाये रखने के लिये जरूरी होता हैं लेकिन पति के शराबी होने पर भी  उसके दुर्व्यवहार को सहना कई बार पत्नी की मजबूरी बन जाता हैं क्योंकि कभी बच्चों के भविष्य की बेड़ी तो कभी समाज की चिंता तो कभी मायके की परेशानी उसके आगे बढे पांवों को पीछे खिंच लेती हैं । कभी-कभी परिवार में किसी सदस्य का व्यवहार पसंद न आने पर भी अन्य सदस्य उसकी आर्थिक स्थिति मजबूत होने पर उसे सहे जाने को मजबूर होते हैं क्योंकि उनका लालच उसे तोड़ने नहीं देता तो कहीं ऐसा भी देखने में आता हैं कि किसी पारिवारिक सदस्य की शारीरिक असमर्थता या अपंगता की वजह से भी उस रिश्ते को निभाना मजबूरी बन जाता हैं जो कि उसके जिये  जाने की जरूरत होता हैं ।

रिश्ता कैसा भी हो जब उसे बिना किसी जरूरत या मजबूरी निभाया जाता हैं तो वो मासूम, पवित्र और दिल का रिश्ता कहलाता हैं और दुनिया का सर्वोत्तम रिश्ता हैं 'इंसानियत' का जो सभी इंसानों को आपस में एक-दुसरे से जोड़े रखता हैं जिसमें न तो कोई जरूरत न कोई मजबूरी होती हैं । जैसे अभी 'पेशावर' में स्कूली छात्र-छात्राओं पर हुये खौफ़नाक आतंकी हमले पर सभी ने दुःख जताया श्रद्धांजलि व्यक्त की जो न तो कोई मजबूरी थी न ही जरूरत ये तो सिर्फ सच्ची मानवीयता थी अतः सभी रिश्तों में सबसे ऊपर होता हैं 'मानवीय रिश्ता' जिसमें कोई खून, धर्म, जात, भाषा, देश, सरहद बाधा नहीं बनती और जो संपूर्ण कायनात को एकसूत्र में जोड़े रखती हैं और 'विश्वबंधुत्व' का अनमोल रिश्ता बनाती हैं ।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात हो या भूतकालीन रिश्तों की अहमियत कभी भी खत्म नहीं होने वाली हैं ये तो केवल आदमी की सोच पर निर्भर करता हैं कि वो अपने रिश्तों को मजबूरी या जरूरत किस वजह से निभा रहा हैं क्योंकि जब लोगों की मानसिकता में स्वार्थहित जुड़ जाता हैं तो फिर उसे निभाना उसकी मजबूरी या जरूरत बन जाता हैं तब इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो रिश्ता खूनी हैं या जुबानी क्योंकि अपने लाभ हेतु वे इसे ढोते चले जाते हैं इसलिये उन्हें निभाना मजबूरी या जरूरत हमारी सोच पर निर्भर करता हैं... :) :) :) !!!
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१९ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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