गुरुवार, 26 मार्च 2015

सुर-८३ : "हर स्त्री हैं... अष्टभुजी त्रिनेत्रधारी....!!!"

अंबा
दुर्गा
काली
या फिर
जो भी हो  
चाहे उसका नाम
पर, जब तक वो हैं शांत
बस... तब तक ही हैं आपकी शान
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मित्रों...,

साधना-उपासना के ये नौ दिन आते ही इसलिये हैं कि हर कोई अपने भीतर की अव्यवस्थित ऊर्जा को एकत्रित कर इस तरह संगठित कर ले कि आने वाले दिनों की मुश्किलात का सहजता से सामना कर उससे बाहर निकल सके साथ ही इस संचित ऊर्जा का उपयोग अपने लक्ष्य को साधने के लिये कर सके जिससे कि जो भी स्वप्न उसने देखें हैं उसे साकार कर जीवन को सार्थकता प्रदान कर सके तभी तो सम्पूर्ण जगत में सारे भक्तों के सामूहिक तपोबल से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगों के प्रसारण से हम लोग आस-पास के वातावरण में भी उस को महसूस कर पाते हैं और अपने आप ही उत्साह से भर नूतन स्फूर्ति के साथ अपने कामों को अंजाम देते हैं इन दिनों साधक जिस अदृश्य शक्ति की उपासना करते वो कोई और नहीं वास्तव में नारी का ही प्रतीकात्मक स्वरूप हैं और जिस दैवीय मूरत की सभी लोग पूजा करते हैं वो हमारे भीतर समाया हुआ शक्ति का अंश हैं और हर स्त्री उसी का मानवीय अवतार हैं भले ही हमें उसकी वो अष्टभुजा या तीसरा नेत्र दिखाई न दे लेकिन होता जरुर हैं अंतर केवल इतना हैं कि ये केवल हमारे भीतर छूपी हुई आठ शक्तियों और उस तेज का परिचायक हैं जिसे जागृत कर हम भी मानव से भगवान के स्तर तक पहुँच सकते हैं

देवी की आठ भुजाओं और उसमें पकड़े हुये अलग-अलग अस्त्र-शस्त्रों एवं माथे पर नज़र आने वाले तृतीय दिव्य नेत्र की अवधारणा गहन चिन्तन और दर्शन का विषय हैं जो कि एक  साधारण इंसान के अंदर सुप्तावस्था में उपस्थित होती हैं लेकिन अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को विषय विकारों में उलझाने की वजह से हम उसे समझ नहीं पाते इसलिये तो हर किसी में आपको वो आभामंडल नज़र नहीं आता जो किसी विशेष व्यक्तित्व के चारों और एक ऐसा वृत बनाता कि उसे देखने या मिलने वाला सहज में उसके प्रति आकर्षित हो जाता इसलिये तो जिसे भी ये रहस्य समझ में आता वो अपनी अनवरत की कठोर साधना दृढ़ निश्चय शक्ति से उसे जगाकर आम से ख़ास बन जाता हैं जबकि दूसरा केवल उसका अनुसरण कर उसका अनुगामी या शिष्य बन जाता अपने भीतर की इस सोयी हुई ताकत को जगाने के लिये जिस तपस्या की आवश्यकता होती वो सबके लिये असंभव तो नहीं लेकिन किसी-किसी के मन में ही उसे जगाने की इच्छा होती और वही साधक ऐसा कर पाता जो संयम के साथ अपने चेतन का अवचेतन के साथ सामंजस्य बिठा लेता जहाँ पर ये सारी की सारी ताकतें ख़ामोशी से सोती रहती लेकिन जब उन पर मंत्रोचार और ध्यान की सतत चोट की जाती तो धीरे-धीरे वो अपनी आँखें खोल देती और बस उसी पल आपके अंदर असीम ऊर्जा का एक विशाल स्त्रोत फूट पड़ता जिसके कारण आपके लिए कुछ भी कर पाना असम्भव नहीं होता

हमारे धर्मग्रन्थों और वेदशास्त्रों में इस तरह के योग और कुंडलिनी जागरण करने की अनेकानेक विधियों का वर्णन हैं जिनके द्वारा हम ये काम कर सकते पर, खुद पर ही नियन्त्रण न हो पाने की वजह से हम उसे करना नहीं चाहते और फिर आज के शॉर्टकट के जमाने में हर कोई कम से कम समय में अधिक लाभ कमाना चाहता इसलिये वो ऐसे उपाय ढूंढता जिनसे झटपट उसका काम बन जाये तो इस तरह के तरीकों की भी कमी नहीं लेकिन ये उसी तरह के होंगे जो आपको क्षणिक लाभ ही दे सकेंगे पर, सबके लिये सबसे आसान जो तरकीब हैं वो तो उसे भी नहीं अपनाना नहीं चाहता तभी तो देवी की पूजा करने वाला ही उसके साक्षात् रूप की अवहेलना करता जबकि यदि हर कोई ‘मनुस्मृति’ के केवल इस मंत्र को जो दर्शाता हैं कि “जहाँ नारी की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं” को ही अपने जीवन में उतार लेते तो आज हर घर में सुख-शांति और खुशियों का निवास होता क्योंकि हर एक औरत के अंदर ‘दुर्गा’ या ‘काली’ या ‘अंबा’ या जिस भी नाम से हम ‘देवी’ को याद करें का वही तेजोमय अष्टभुजीय त्रिनेत्रधारी स्वरूप समाया हुआ हैं जिसे वो खुद बड़ी मुश्किल से दबाकर रखती ताकि घर-घर खुशहाली रहें... हर किसी के चेहरे पर मुस्कान खिलती रहें... क्योंकि वो जानती हैं कि जिस दिन उसने वो रूप धारण कर लिया कोई उस अपार तेज को झेल नहीं पायेगा... तो फिर इससे सहज-सरल और कुछ नहीं कि हर कोई देवी की पूजा करें न करें लेकिन उसके इस मानवीय रूप को कतई अपमानित या शर्मसार न करें... बस, इतने में ही वो उसके उस अन्नपूर्णा और लक्ष्मी रूप को प्रसन्न कर अपने जीवन को सुखी कर सकता... और यदि कभी गलती से उसका वो रोद्र रूप सामने आ ही जाता तो फिर सभी जानते हैं कि किस तरह सब कुछ एक पल में खत्म हो जाता... यदि वो सृजनकर्ता और जननी हैं तो संहारक और विध्वंशक भी हैं ये आप पर निर्भर करते कि आप उसे किस रूप में देखना चाहते हैं... :) :) :) !!!           
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२६ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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