सोमवार, 16 मार्च 2015

सुर-७३ : "औरत का कोई मजहब नहीं... वो सिर्फ़ देह हैं...!!!"

ऐसा
कोई ‘धर्म’
या ऐसी ‘जाति’
लेकर हमको करना क्या ?
जो न दे सके
हमें हमारी अपनी पहचान

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मित्रों...,

आज समाचार-पत्र में कुछ ऐसी घटना पढ़ने को मिली जिसने ये सोचने को मजबूर कर दिया कि ‘नारी’ का कोई भी ‘मज़हब’ या कोई ‘जाति’ नहीं होती वो सिर्फ़ ‘स्त्री’ का तन लेकर पैदा होती हैं इसलिये खुद को विशेष धर्म का कट्टर पंथी बताने वाले हो या गले में किसी भी आस्था का पट्टा लटकाये हो या फिर हाथ में अभिमंत्रित धागा बांधे हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता जब सामने एक अकेली अबला नारी हो तो ये सब प्रतीक और उनके उपासक अपने-अपने देवताओं को भूल जाते हैं इसलिये तो जो लोग समाज के सामने अपने आपको किसी ख़ास समुदाय का प्रतिनिधि बताते हैं वो भी उस समय अपने दिलों-दिमाग में ऐसी किसी भी बात को लाना तक अधर्म समझते हैं जिसे हम सोचकर भी शर्मसार हो जाते हैं लेकिन ऐसा करने वाले तो खुद को किसी अनुष्ठान या विधि से पुनः पाक़-साफ़ कर अपने समाज में प्रतिष्ठित हो जाते हैं जबकि बेकुसूर औरत को तो अपने घर में भी जगह नहीं मिलती हैं यहाँ तक कि इस हादसे के बाद उसकी तो पहचान तक खत्म हो जाती हैं, नाम गुमनाम हो जाता हैं । उसे तो कोई देह से परे कुछ समझना ही नहीं चाहता तभी तो उसकी जात-पात तो छोड़ो आदमी को उसकी उम्र से भी कोई वास्ता नहीं होता उसके लिये तो केवल उसका ‘स्त्री लिंग’ होना ही पर्याप्त होता हैं जिसकी वजह से वो अपना आप भी याद नहीं रखना चाहता उसे पर तो जैसे जुनून सवार हो जाता हैं जहाँ वो भी अपने आपको ‘मर्द’ के सिवा और कुछ नहीं समझना चाहता हैं ।

ऐसे में ये विचार आना भी लाज़िमी हैं कि जो भी इन सबकी आड़ लेते हैं वो भी दरअसल तब तक खुद को एक पर्दे में छुपाकर रखते हैं जब तक कि उनकी कामना पूर्ति नहीं होती या उनको एक अवसर नहीं मिलता तब तक एक लिबास में अपनी असलियत ढंककर सोचते हैं कि देखने वाला उसे बस, वही समझे जैसा वो नज़र आ रहा हैं । वैसे भी ‘सिंग’ या ‘दांत’ तो जानवर के नज़र आते हैं तो हम उनसे सावधान हो जाते हैं पर, जिनके पास ये सब नहीं हैं वही कौन से इंसान बन गये । वो मूक हिंसक पशु तो अपनी प्रकृति से मजबूर हैं इसलिये किसी को मारकर खाते लेकिन उसमें भी बड़ा हिसाब-किताब रखते और बेवजह या उनसे किसी भी तरह की छेड़-छाड़ न किये जाने पर हमला नहीं करते और कर भी दे तो वो प्रहार भी इतना घातक या मारक नहीं होगा जितना कि इन बिना सिंग-नाख़ून-नुकीले दांत वाले दो पाँव के आदिमानव का होता हैं जो सभ्यता के साथ बदला तो जरुर मगर, अपनी आदिम फितरत को नहीं बदल पाया । फिर ये सब ढोंग दिखावे की जरूरत क्या जब ये चोला पहनकर, ग्रंथ पढ़कर भी उसका अंतरमन ‘इंसानियत’ के ‘धर्म’ को न तो समझ ही पाया न ही अपना पाया जिस दिन हर कोई खुद को सिर्फ एक ‘इंसान’ और ‘इंसानियत’ को एकमात्र धर्म मान लेगा बहुत सारी समस्यायें स्वतः ही समाप्त हो जायेगी जो अन्य धर्म-कर्म के नाम पर अपनी जड़ें इस कदर फैला लेती हैं कि दूसरे छोटे-छोटे नाज़ुक पौधों को पनपने की जमीन या हवा-पानी तक नसीब नहीं होता हैं ।

इस दुनिया में हर जगह ‘औरत’ को जिस्म के अलावा कुछ और नहीं समझा जाता भले ही हमें उपर से कुछ भी नज़र आये लेकिन हकीकत यही हैं यदि हम चंद तरक्की की सीढियां चढ़कर शीर्ष पर पहुंची आदमकद महिलाओं से अपनी नज़र हटाकर देखें तो पायेंगे कि हर जगह, हर मुल्क में उसकी दशा लगभग एक जैसी हैं... शायद, दूसरे देशों में और भी बुरी क्योंकि वहां उनको आज़ाद, आधुनिक और खुले विचारों की समझकर इस तरह की बातों को तवज्जों ही नहीं दी जाती... फिर भी जब भी लोग सोचते तो केवल ‘पेज-थ्री’ की कुछ तस्वीरों जिसमें वो मॉडर्न ड्रेस पहनकर हाथ में जाम और कभी-कभी सिगरेट पकड़कर खड़ी छवि को ही ‘आज की नारी’ का नाम दे देते जबकि ये तो चंद वे हैं जो अपनी हिस्से की आज़ादी को भुना रही हैं जिसकी कीमत कहीं और कोई दूसरी चुका रही हैं... अतः नारी को भी समझने की जरूरत हैं कि वो अपने आपको पुरुषों की नज़र से देखना बंद कर दे तो शायद, वो भी आपको एक ‘देह’ नहीं बल्कि आपके वजूद के साथ देखना शुरू कर दे... क्योंकि ज़ुल्म का शिकार तो तुम हो तो तुम्हें ही अपना लिये आवाज़ ही नहीं हाथ-पांव भी उठाना होगा... और उनके लिये भी जो ख़ुद ये हिम्मत नहीं कर पाती... यूँ तो किसी को भी अपनी देह के खोल से बंधे शाप से तो मुक्ति नहीं मिल सकती लेकिन उसकी रक्षा की जिम्मेदारी भी तो उसे नहीं दी जा सकती न जो उसका फ़ायदा उठाता हो... औरत को ही संगठित होकर कुछ करना होगा... इस सोच को बदलना होगा... अपना नया इतिहास लिखना होगा... अपने को फिर परिभाषित करना होगा... उसके सिवा कोई बता भी तो नहीं सकता उसकी चाहत और विचारधारा को... बोलो... बोलो... यही सच हैं न... :) :) :) !!!                   
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१६ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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