सोमवार, 2 मार्च 2015

सुर-६१ : "आधी नहीं... पूरी आबादी की जन्मदात्री... नारी ---०१ !!!"

कोख़ से
जिसकी जन्मी
ये दुनिया... सारी
.....
जिसने
किसी भी सूरत
कभी हार न... मानी
.....
ईश्वर
न कहो उसे
वो तो हैं... बस, ‘नारी’
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मित्रों...,

‘मार्च’ महीने के आगमन के साथ ही ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ की चर्चा भी धीरे-धीरे तेज होने लगती हैं और अब तो हमारे देश में भी इसके मायने बड़ी तेजी से बदलते जा रहे हैं क्योंकि जिस तरह से इस देश के कई प्रांतों में लिंगानुपात बढ़ता जा रहा हैं लोगों में कन्या भ्रूण को बचाने और जन्म देने के अभियान चलाये जा रहे हैं लेकिन कोई ये नहीं सोचता कि इस तरह की स्थितियां किस तरह उत्पन्न हुई वो भी उस देश में जहाँ वेद-शास्त्रों और धर्मग्रंथों में ‘स्त्री’ को ‘देवी’ का दर्जा दिया गया हो लेकिन असलियत में हम सभी जानते हैं कि एक बड़े वर्ग में कभी-भी उसे देह से ऊपर नहीं समझा  गया और यदि ये सच न होता तो आज उसी भूमि पर जहाँ ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ वैदिक मंत्र का गान किया जाता था और बचपन से यही सिखाया जाता था कि अपने से बड़ी उम्र की नारी को ‘माँ’, समवयस्क को ‘बहन’ और अपने से छोटी लड़की को ‘पुत्री’ समान माने जिससे कि व्यक्ति का चरित्र और मानसिक संतुलन बिगड़े नहीं वहीँ जिस तरह से प्रतिदिन दुष्कर्म की घटनायें तेजी से बढ़ती जा रही हैं वो स्वयं इस बात की पुष्टि करता हैं कि आदमी के नैतिक चरित्र का किस कदर पतन हो गया हैं अभी भी यदि ‘बेटी बचाओ’ जैसे नारों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा हैं तो उसके पीछे की हकीकत भी किसी से छुपी हुई नहीं हैं

जैसे-जैसे समय के साथ ये कड़वा सच सबके सामने आया कि वंशबेल बढ़ाने और घर-गृहस्थी चलाने के लिये उसके सिवा कोई और विकल्प किसी के भी पास नहीं हैं तो फिर एकमात्र यही उपाय रह गया था कि देश एवं प्रशासन इस बात के प्रति जागरूकता का दिखावा करते हुयें इस तरह की योजनायें बनायें कि लोग बालिका को बोझ न समझे बल्कि अब तो बदलते समय में उसकी उपयोगिता को देखते हुये कि जिस तरह से उसने घर-बाहर सब जगह संतुलन बनाते हुये सब कुछ साधा हुआ हैं तो इस तरह अब एक ‘लड़की’ के उपर जिम्मेदारियों का वज़न भी तो बढ़ गया जिसकी वजह से किसी और के कंधे और पीठ से ज्यादा तो नहीं पर काफ़ी हद तक कुछ तो जवाबदारियों का ज़िम्मा कम हुआ हैं ऐसे में जब वही ‘बच्ची’ अपनी ज़िंदगी की गाड़ी ख़ुद ही चला पाने में सक्षम हो तो फिर उसे जन्म देने में कोई बुराई तो नहीं मतलब यहाँ भी बाजारबाद का सिद्धांत लागू हो गया लाभ-हानि के तराजू में जिसका पलड़ा भारी उसे तरजीह दी ही जाती हैं इसका मतलब ये कतई नहीं कि सभी लोग इस तरह सोचते हो लेकिन कहीं न कहीं ये तर्क भी अपना काम कर रहा हैं क्योंकि जिस तरह से कामकाज़ी महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा हैं और उसने आर्थिक हिस्सेदारी में भी अपना योगदान देना शुरू किया हैं उसने भी उसकी व्यासायिक महत्ता को बढ़ा दिया हैं इस तरह अब ‘बेटी’ को बचाना ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ की तरह की कहावत को भी चरितार्थ कर रहा हैं याने कि जो अब तक सिर्फ चारदीवारी में कैद रहकर घरेलू काम-काज ही देखती थी वो अब कमाने भी लगी हैं और पचास तरह के अन्य काम भी खुद करने लगी हैं जिनके लिये कभी भी पूरी तरह से पुरुष पर निर्भर करती थी साथ वो तो इतनी अधिक सक्षम हैं कि जहाँ पहले अकेला आदमी कमाता था और पूरे घर को पालता-पोसता था और बड़ी शान से डींगे हांकता था वही अब ‘औरत’ तो न सिर्फ़ पहले की तरह रसोई बल्कि उसके साथ अब तो दफ़्तर, बाज़ार, बैंक, स्कूल, कॉलेज और हर कर्मक्षेत्र में अपने कदम टिकाकर वो मुस्तैदी से काम कर रही हैं जो पहले सोचना भी मुश्किल था और वो उसकी तरह उसका कोई ढिंढोरा भी नहीं पिटती तो फिर उसको बचाना तो हर तरह से फ़ायदे का सौदा हैं

आज तक ये बात समझ नहीं आई कि जब हर कोई इस सच्चाई से वाकिफ़ हैं कि सृष्टि रचयिता के बाद सिर्फ़ ‘स्त्री’ के पास ही मानव सृजन की क्षमता हैं और वो खुद ‘माँ’ को भगवान भी समझता हैं तो फिर वही किन्हीं कमजोर पलों में इसे भूलकर किस तरह उसी पूजनीय मूरत से खिलवाड़ कर लेता हैं यानि कि कहीं न कहीं तो सोचने और मानने में अंतर हैं तभी तो ‘नवदुर्गा’ में कन्या को देवी का अंश मानकर पूजने वाला इंसान ही उसके साथ अमानवीय व्यवहार कर देता हैं ऐसे में जरूरी हैं कि प्रचार इस बात का किया जाये कि भले ही आप ‘स्त्री’ को ‘देवी’ न माने न पूजा करे उसकी लेकिन उसे सिर्फ और सिर्फ मानवी समझे ताकि वो भी अपने हिस्से की जिंदगी को जी सके इसके अलावा सभी लोग इस छोटी-सी बात को जान ले कि उसके बिना इस संसार की कोई भी गतिविधि या कोई भी आयोजन निरर्थक हैं और जिस तरह उसके अस्तित्व से ही सभी का अपना वज़ूद भी कायम हैं उस हकीकत को भी आप नकार नहीं सकते भले ही आप उसे ‘आधी आबादी’ कहकर संबोधित करें लेकिन इससे उसकी काबिलियत में रत्ती मात्र भी कमी नहीं आती यदि आप ये कहकर अपना कहकर सीना चौड़ा कर लेते हैं कि उसे ‘माँ’ बनने का गौरव आप ही के कारण हासिल होता हैं तो ये भी जान ले कि यदि दरख्त के पनपने के लिये ‘बीज’ अनिवार्य हैं तो उसके जीवन को कायम रखने के लिये उसकी परवरिश उससे भी कही अधिक जरूरी हैं कहने का मतलब कि सिर्फ पौधा रोपने से नहीं ही आप खुद को बड़ा और उसे छोटा नहीं आंक सकते बल्कि उसकी देखभाल करने का काम अधिक महत्वपूर्ण हैं जिस तरह ‘मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता हैं’ उसी तरह मेरा कहना हैं कि ‘वृक्ष’ लगाने वाले से उसे सींचने वाला अधिक बड़ा हैं... तो उसी ‘सृजनकर्ता’ को समर्पित हैं मेरी ये श्रृंखला ‘आधी नहीं... पूरी आबादी की जन्मदात्री... नारी’... जिसकी ये ‘प्रथम कड़ी’ आप सबके सामने प्रस्तुत हैं और अब ‘महिला दिवस’ तक रोज इसी तरह उसके वास्तविक मायने को खोजने का प्रयास करती अन्य कड़ियाँ भी आती रहेगी... नारीशक्ति जिंदाबाद... :) :) :) !!!
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०२ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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