बुधवार, 25 मार्च 2015

सुर-८२ : "कलमकार पत्रकार... 'गणेश शंकर विद्यार्थी' का वार... 'प्रताप'!!!


दूसरों को
बचाने ख़ातिर
जान अपनी दे गये
पर, मरकर भी अमर हो गये
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मित्रों...,

ये तो इस देश का और हम सबका सौभाग्य हैं कि इस पावन भूमि पर ऐसी महान और देशभक्त आत्माओं ने जनम लिया कि यदि हम रोज भी किसी एक के प्रति अपने मनोभावों को प्रकट कर उसे आभार व्यक्त करें तो भी दिन कम पड़ जायेंगे लेकिन इन अमर शहीदों की गिनती न खत्म होगी वाकई ये सत्य हैं कि काल के अनुसार ही एक समय में एक जैसी आत्मायें पैदा होती हैं जो अपने कृत्यों से एक समान कार्य कर ऐसा ऊर्जावान वातावरण तैयार करती हैं कि अन्य लोग भी उसके वशीभूत होकर उसी कर्मधारा में प्रवाहित होकर उसी तरह के नेक काज करते हैं तभी तो जब ये देश गुलाम था उस वक़्त हर उम्र का देशवासी अपनी मातृभूमि और अपनी प्यारी भारत माता के बंधन की कल्पना कर उस कसमसाहट को महसूस कर तड़फड़ा रहा था और सभी ने अपने मन में ये संकल्प लिया कि वो अपने वतन को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिये जो भी संभव होगा सब कुछ करेंगे इसलिये तो जिससे भी जो कुछ भी उससे बन पड़ा उसने वो सब कुछ किया बच्चे, बड़े, बूढ़े, औरतों आदि सभी ने स्वतंत्रता संग्राम के उस पुनीत यज्ञ में अपने-अपने कर्मों और बलिदान की आहुति डाली जिससे कि इस सामूहिक प्रयास से उन डोरियों की कसावट कुछ कम हो जाये, गुलामी की वो जंजीरे कुछ कमजोर हो जाये ये शायद, सभी की कोशिशों का नतीजा था कि उनके इन छोटे-छोटे प्रहारों ने लोहे की उन मजबूत जंजीरों को न सिर्फ़ तोड़ा बल्कि अपनी माँ और अवाम को स्वतंत्र कर उसे खुली हवा का उपहार दिया जिसकी वजह से हम सब आज इस माहौल में बिंदास जी पा रहे हैं लेकिन हमें इतना कृतध्न भी नहीं बनना चाहिये कि जब हमारे किसी भी क्रांतिकारी जिसने कि हम सबको स्वतंत्रता की अनमोल सौगात देने में अपने प्राणों का बलिदान दिया हैं कि कोई भी तिथि आये तो हम सब उसे न सिर्फ याद करें बल्कि जिस तरह भी हो उसे श्रद्धांजलि अर्पित करें

कल ही हम सबको सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आई.टी. कानून से ‘66A आर्टिकल’ को रद्द करते हुये  ‘इंटरनेट’ की विशाल दुनिया में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का तोहफा मिला और आज ही फिरंगियों के शासनकाल में जबकि बोलने तक पर पाबंदी थी अपनी कलम के माध्यम से ‘पत्रकारिता’ के क्षेत्र में सरकार की नींव को हिला देने वाले एक निर्भीक और जुझारू कलमकार होने के साथ-साथ उतने ही बड़े देशभक्त, समाजसेवी एवं राजनीतिज्ञ ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ की पुण्यतिथि हैं जिन्होंने किसी अस्त्र-शस्त्र नहीं बल्कि अपनी बेबाकी और अभिव्यक्ति के एक अलहदा अंदाज़ और छोटी-सी कलम से ही अंग्रजों को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था २६ अक्टूबर १८९० को इस देश के कानपुर शहर में इस वीर सपूत ने जनम लिया इनकी प्रारंभिकशिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी जहाँ पर उन्होंने उर्दू-फ़ारसी का गहन अध्ययन किया पर अपनी परिवार की आर्थिक मजबूरियों की वजह से वो अधिक पढ़ न सके और एंट्रेंसतक पढ़कर ही उन्हें बीच में ही अपनी पढाई अधूरी छोड़नी पड़ी लेकिन इन कठिनाइयों के बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा जिसकी बदौलत उन्होंने अपनी सतत मेहनत और अपूर्व लगन से पत्रकारिता के सभी दांव-पेंच को सहेज कर अपने आपको एक निडर कलम का धनी बना लिया और उनकी इस प्रतिभा के दम पर उनको एक नौकरी भी मिली गई पर, अपनी निष्पक्षता, ईमानदारी और बेबाकी ने अंग्रेज़ अधिकारियों को उनका शत्रु बना दिया और उन्होंने गुस्से में आकर वह नौकरी छोड़ अपना स्वतंत्र काम करने का निर्णय लिया ये थे उस दौर के ‘रियल हीरो’ जो किसी से नहीं डरते थे और अपनी बात बेखौफ़ कहते फिर चाहे सामने उनके कोई भी खड़ा हो तभी तो जब इस देश पर ब्रिटिश शासन था तब भी जो सत्यवान थे वो बिना किसी डर के सत्य की राह पर चलते रहें ‘सत्यमेव जयते’ के सूत्र को अपने कर्म से सिद्ध कर गये

अपने देश के लोगों में नवजागृति लाने और उनके सुप्त होते जोशों-खरोश में नवीन चेतना का संचार करने के लिए उन्होंने महाराणा प्रतापके हौंसलों और हिम्मत से प्रेरणा लेते हुये प्रतापनामक एक साप्ताहिक समाचार-पत्रका प्रकाशन शुरू किया जिसका प्रथम अंक ९ नवम्बर १९१३  को प्रकाशित हुआ अपने इस अंक से ही उन्होंने लोगों को प्रेरणा देने हेतु ऐसी पंक्तियों का सहारा लिया जिसे पढ़ते ही लोगों के खून में उबाल आ जाये और इस तरह से ये पंक्तियाँ उनके हर अंक में छपने लगीं---

"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
यह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है"।।

अपने स्वप्न के साकार रूप इस प्रथम अंकमें ही उन्होंने उसकी नीति, उसके उद्देश्य और कार्यक्रम पर प्रकाश डालते हुये लिखा कि---

आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूरा विश्वास रखकर प्रतापकर्मक्षेत्र में उतरा है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं” ।

अपने भाई-बहनों की रगों में जोश भरने के लिये उन्होंने अपने समाचार-पत्र को माध्यम बनाकर ऐसे उत्साहवर्धक संदेश प्रसारित किये---

भारत के नवयुवकों,

तुम्हारे सम्मुख जो कार्य है, वह अत्यंत महान है सैकड़ों नहीं, सहस्त्रों नहीं, लाखों माताओं के लाल जिस समय तक अपने देशवासियों की अनन्य सेवा में अपने समस्त जीवन को व्यतीत न करेंगे, तब तक इस महान कार्य का सिद्ध होना संभव नहीं है । यदि तुम सच्चे मनुष्य बनना चाहते हो, तो अपनी शिक्षा का उचित प्रयोग करना सीखो । स्वार्थ त्याग दो, हर प्रकार के व्यक्तिगत सुखों को तिलांजलि दे दो निज मातृभूमि को मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले जाने का भी यही उपाय है।

कहते हैं कि अपनी साहित्य साधना के दौरान एक बार गणेश शंकर की भेंट पंडित सुन्दरलालजीसे हुई जिन्होंने  उनको हिन्दीमें लिखने का गुरुमंत्र और विद्यार्थीका उपनाम भी दिया जिसे उन्होंने अपने नाम के साथ सदा-सदा के लिये ऐसा जोड़ लिया कि आज भी उनका नाम इसके बिना अधुरा प्रतीत होता हैं यहाँ तक कि उनके जीवन काल में कभी ऐसा अवसर भी आया जब किसी ने उनसे पूछा कि आप अपने नाम के साथ विद्यार्थीउपनाम क्यों लिखते हैं ? तब विद्यार्थीजी ने उतनी ही सहजता से उसे बताया कि--- मनुष्य अपने  संपूर्ण जीवन में कुछ न कुछ सीखता ही रहता है और उसकी वही जिज्ञासु प्रवृति उसे एक सच्चा विद्यार्थीबनाती हैं इसलिये तो मैं अपने नाम के साथ विद्यार्थीजोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपने आपको विद्यार्थी मानता हूँ” । उनकी इस कर्म-साधना के मध्य में ही अचानक जब २३ मार्च १९३१ को अंग्रेज हुकूमत से भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी तो पूरे देश में रोष की लहर दौड़ गई जिससे दंगे होने लगे और जिसमें निसहाय लोगों को बचाने खातिर जब वे इस लड़ाई में कूद पड़े तो आज ही के  दिन २५ मार्च १९३१ को उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी... इस तरह अपनी अंतिम साँस तक वो देशहित और जनहित में ही लगे रहे आज उनकी इस क़ुरबानी को याद करते हुए उनको ये शब्दांजलि... शत-शत नमन... कोटि-कोटि प्रणाम... :) :) :) !!!
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२५ मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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