सोमवार, 30 मार्च 2015

सुर-८७ : "भारतीय सिने जगत की प्रथम स्वप्न सुंदरी... देविका रानी...!!!"

वो थी
सबसे अलग
प्रतिभा का भंडार
जो भी चाहा
सब कुछ हासिल किया
और...
हिंदी सिने जगत के
सबसे पहले पायदान पर
स्वर्ण अक्षरों में
अपना नाम ‘देविका रानी’ लिखा
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मित्रों...,

भारतीय सिनेमा के इतिहास की ईमारत का निर्माण जहाँ से शुरू होता हैं उसकी नींव में जो मजबूत शिलायें लगाई गयी हैं उनमें से एक पर ‘रजतपट की प्रथम पटरानी’ और ‘ड्रीम गर्ल’ का तमगा हासिल करने वाली ‘देविका रानी’ का नाम खुदा हुआ हैं जिसे वक़्त की आंधियां और उनके बाद आने वाली अनगिनत अदाकारायें भी हिला तक न सकी हैं क्योंकि इसकी आधारशिला को इतना दमदार बनाने के लिये उस दौर के अतिस्वपनदर्शी मेहनती और कुछ भी कर गुजरने की अद्भुत क्षमता रखने वाले कलाकारों ने किसी ईट-गारे या मिट्टी का नहीं बल्कि निरंतर अपने अथक परिश्रम के अलावा उसे साकार करने के लिये अकल्पनीय सोच को हर स्तर तक ले जाते हुये उसका निर्माण करते समय अपनी देह से बहने वाले पसीने में अपने अंदर के आब के साथ-साथ रगों में दौड़ने वाले लहू को भी सींच दिया था जिसकी वजह से वो स्थान जिसे हम आज ‘बॉलीवुड’ के नाम से जानते हैं को मूर्त रूप हासिल हो सका ऐसे में जब इसे बनाने वाले किसी भी कलाकार का स्मृति दिवस आता तो स्वतः ही कलम उसके प्रति अपने उद्गारों को अभिव्यक्त करने को मचल उठती कि भले ही वो अब न रहें लेकिन यदि वो सचमुच न होते तो क्या ये सब संभव हो पाता क्योंकि उस शुरूआती लेकिन सबसे कठिन दौर में इन लोगों ने किसी भी तरह की परिस्थिति या हालात या साधनहीनता या अभाव को अपने मार्ग में रोड़ा नहीं अटकाने दिया बल्कि यदि किसी तरह की कोई समस्या आई भी तो सबने मिलकर उसका हल खोजा और यही वजह हैं कि उस समय हमारे देश में सभी तरह की तकनीक और उत्कृष्ट दर्जे के साधन न होने के बावजूद भी कभी किसी ने भी अपना काम नहीं रोका और जब-जब किसी के सामने कोई भी संकट आया तो उसने घुटने मोड़ने के बजाय आगे बढ़कर उसका सामना करते हुये कुछ ऐसा कर दिखाया कि देखने वाले दांतों तले अंगुली दबाकर रह गये तभी तो हमारा ये ‘हिंदी सिनेमा’ जो प्रारंभ में किसी नवजात शिशु की भांति मूक और कमजोर था वो न सिर्फ धीरे-धीरे सबल बना बल्कि उसने चलना-बोलना और दौड़ना भी सीखा और आज तो वो विश्व के आधुनिकतम तकनीकी फिल्मों से भी टक्कर ले रहा हैं तभी तो हमारे यहाँ के उच्च दर्जे के अदाकार और तकनीशियन को देश के बाहर भी लोग जानते हैं उनका सम्मान करते हैं और ये सब केवल आज ही नहीं उस समय भी होने लगा था जब सीमित साधनों में ही हमारे यहाँ के दिग्गजों ने किसी बेमिसाल कृति की रचना की थी

‘देविका रानी’ एक ऐसी हस्ती जो कि देश के प्रथम ‘नोबल पुरस्कार’ प्राप्त करने वाले हमारे राष्ट्रिय कवि और गुरु ‘रविन्द्रनाथ टैगोर’ के खानदान से ताल्लुक रखती थी और ३० मार्च, १९०८ में विशाखापटनम में एक कर्नल पिता ‘एम.एन. चौधरी’ के घर पैदा हुई थी और अपनी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद बहुत जल्द डनाट्य विधा में प्रशिक्षण लेने के लिये ‘लंदन’ चली गईं और वहाँ जाकर उन्होंने  'रॉयल एकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट' (RADA) के अलावा ‘रॉयल एकेडमी आफ म्युजिक' जैसे नामी-गिरामी संस्थाओं में प्रवेश लिया जो ये ज़ाहिर करता हैं कि उनके भीतर शुरू से ही अभिनय के प्रति रुझान था और परिवार की सहमति होने से उन्हें उस समय में भी विदेश जाने का अवसर मिल सका जहाँ पर उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर स्कॉलरशिप प्राप्त कर अभिनय के साथ-साथ आधुनिक सभ्यता को भी करीब से देखा शायद, तभी उनके अंदर भी एक अलग तरह की ‘बोल्डनेस’ भी आ गयी जिसकी वजह से उन्होंने उस कालखंड से आगे की सोच दर्शाते हुये कुछ ऐसे काम किये जो उस समय सोचना भी नामुमकिन था अपनी संजीदा व संवेदनशील अदाकारी के साथ नयनाभिराम मासूम सुंदरता से अभिनय के ऐसे जलवे बिखेरे कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाकर अपनी कलाकारी का परचम फहरा दिया और हमारे यहाँ उन्होंने सिनेमा के इतिहास की किताब में ऐसी इबारत लिखी जिसने सुनहरे पर्दे पर अपने हाव-भाव से जीवंत किये जाने चरित्रों के लिये नूतन मूल्य और मापदंड स्थापित कर दिये और आगे आने वाली पीढ़ी को भी ज्ञात हुआ कि वास्तव में चलचित्र सिर्फ़ एक स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत का ही आईना हैं  

हमारी फिल्मों ने बोलना शुरू ही किया था कि तभी उसे इस अदाकारा की जबान और अदाकारी का साथ मिल गया और इस तरह १९३३ में उनकी पहली फिल्म ‘कर्मा’ का निर्माण हुआ जिसने सिर्फ अपने देश में ही नहीं विदेश में लोगों को प्रभावित किया और यह पहली फिल्म थी जिसका अंग्रेजी संस्करण भी बना जो यूरोप में प्रदर्शित हुआ बस, इसके बाद उन्हें यहाँ और वहां दोनों जगह समान रूप से नाम और पहचान हासिल हुई जिसके बाद उन्होंने सुप्रसिद्ध निर्माता और अभिनेता ‘हिमाशु रॉय’ से न सिर्फ शादी कर ली बल्कि दोनों से साथ मिलकर उस समय में ‘बॉम्बे टॉकीज’ जैसी प्रतिष्ठित कंपनी का निर्माण किया जिसे आज भी सिनेप्रेमी भूल नहीं सकते क्योंकि इसके अंतर्गत काम करना ही किसी कलाकार के लिये गौरव की बात होती थी और इसने न जाने कितने नये संघर्षरत कलाकारों को मौका देकर उनका भविष्य बना दिया इसी के बैनर तले बनी ‘अछूत कन्या’ और उसमें शीर्षक रोल करने ‘देविका रानी’ व ‘अशोक कुमार’ पर फिल्माये एक गीत ‘मैं वन की चिड़िया बनकर वन-वन डोलूं रे...’ को अब तक कोई भी विस्मृत न कर सका होगा इस फिल्म के बाद तो उनके प्रशंसकों ने उनको न जाने कितने नाम, न जाने कितने तमगे और उपाधियों से नवाज दिया और इस तरह अभिनेत्री निर्मात्री ‘देविका रानी’ बन गयी ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन’ और आज तक उनसे ये उनकी ये पहचान कोई भी नहीं छीन सक... इसके साथ-साथ उन्होंने हर तरह के पुरस्कार के साथ-साथ सर्वोच्च सिने सम्मान ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ भी प्राप्त किया... और ९ मार्च १९९४ को हम सबको अलविदा कर चली गयी अपनी मधुर स्मृति की विरासत सौंपकर... तो आज उनके जन्मदिवस पर उनको सभी सिने प्रेमियों की तरफ से ये प्रेमांजली... शब्दांजली... श्रद्धांजली... :) :) :) !!!  
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३० मार्च २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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